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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भावाटीका
उतियाणं एवं, गवरि य उक्कस्स विरहकालो दु । पोग्गलपरिट्टा हु, असंखेज्जा होंति नियमेण ॥ ५५४॥
अंतरभवरोत्कृष्टं, कृष्ण त्रयाणां मुहूर्तालिस्तु । उatri भगती निमि
तेजस्त्राणामे, नरि च उत्कृष्टविरह कालस्तु ।
पुद्गलपरिवर्ता हिं, असंख्येया भवति नियमेन ॥ ५५४॥
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टीका - अंतर नाम विरह काल का है। जैसे कोई जीय कृष्णलेश्या विषै प्रवर्ते था, पोछें कृष्ण को छोडि अन्य लेश्यानि को प्राप्तं भया । सो जितने काल पर्यंत फिर तिस कृष्णलेश्या की प्राप्त न होइ तीहि काल का नाम कृष्णलेश्या का अंतर कहिये | सें ही सर्वत्र जानना । सो कृष्णादिक तीन लेश्यानि विषे जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त प्रमाणहै । बहुरि उत्कृष्ट छ अधिक तेतीस सागर प्रमाण है ।
तहां कृष्णलेश्या विषै अंतर कहे हैं
कोई जीव कोडि पूर्व वर्षमात्र प्रायु का धारी मनुष्य गर्भ ते लगाय आठ वर्षे होने विषे छह अंतर्मुहूर्त श्रवशेष रहें, तहां कृष्णलिश्या की प्राप्त भया, तहां अंतर्मुहूर्त तिष्ठि करि नील लेश्या कौं प्राप्त भया । तब कृष्णलेश्या के अंतर का प्रारंभ कीया । तहां एक - एक अंतर्मुहूर्त मात्र अनुक्रम से नील, कपोत, पीत, पद्म, शुक्ललेश्या को प्राप्त होइ, बाठ वर्ष का अंत के समय दीक्षा घरी, तहां शुक्ललेश्या सहित कि घाट कोडि पूर्व पर्यंत संयम को पालि, सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त भया । तहां तेतीस सागर पूर्ण करि मनुष्य होइ, अंतर्मुहूर्त पर्यंत शुक्ललेश्या रूप रह्या । पीछे अनुक्रम तें एक-एक अंतर्मुहूर्त मात्र पद्म पीत, कपोत, नील लेश्या की प्राप्त होइ, कृष्ण लेश्या को प्राप्त भया; असे जीव के कृष्ण लेश्या का दश अंतर्मुहूर्त श्रर आठ वर्ष घाटि कोटि पूर्व इन करि अधिक तेतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट अंतर जानना । पैसे ही नील लेश्या र कपोत 'श्या विष उत्कृष्ट अंतर जानना । विशेष इतना जो तहां दश अंतर्मूहूर्त कहे हैं. नील विषै भाठ कपोत विषे छह अंतर्मुहूर्त ही अधिक जानने ।
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अब तेजोलेश्या का उत्कृष्ट अंतर कहैं हैं
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कोई जीव मनुष्य वा तिर्यच तेजोलेश्या विषै तिष्ठे था, तहां स्यों कंपोत लेण्या कौं प्राप्त भया, तब तेजोलेश्या के अंतर का प्रारंभ कीया । तहां एक एक अंतर्मुहूर्त
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