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गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३६०-३६८
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बहुरि भाव, जो जीवादिक तत्त्व विर्षे उपयोगरूप पर्याय, ताके मिथ्यात्वकषायरूप संक्लेशपना की निवृत्ति अथवा सामायिक शास्त्र की जान है अर उस ही विष उपयोग जाका है, सो जीव अथवा सामायिक पर्याय रूप परिणमन, सो भावसामायिक है ।
असें सामायिक नामा प्रकीर्णक कहा है।
बहुरि जिस काल विर्षे जिनका प्रवर्तन होइ, तिस काल विर्षे तिन ही चौबीस तीर्थकरनि का नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव का प्राश्रय करि पंच कल्याणक, चौतीस अतिशय, आठ प्रातिहार्य, परम औदारिक दिव्य शरीर, समवसरणसभा, धर्मोपदेश देना इत्यादि तीर्थंकरपने की महिमा का स्तवन, सो चतुविशतिस्तव कहिए । तरका प्रनिगादक शास्त्र, सो नतिशालिस्ट जामा प्रकीर्णक है। . .
बहुरि एक तीर्थंकर का अवलंबन करि प्रतिमा, चैत्यालय इत्यादिक की स्तुति, सो वंदना कहिए । याका प्रतिपादक शास्त्र, सो चंदना प्रकीर्णक कहिए ।
बहुरि प्रतिक्रम्यते कहिए प्रसाद करि कीया है देवसिक आदि दोष, तिनिका निराकरण जाकरि कीजिए, सो प्रतिक्रमण प्रकीर्णक कहिए। सो प्रतिक्रमण प्रकीर्णक सात प्रकार है - देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐपिथिक उत्तमार्थ ।
तहां संध्यासमय दिन विर्षे कीया दोष, जाकरि निधारिए, सो देवसिंक है । बहरि प्रभातसमय रात्रि विर्ष कीया दोष जाकरि निवारिए, सो रात्रिक है । बहरि पंद्रह दिन, पक्ष विर्षे कीया दोष जाकरि निवारिए, सो पाक्षिक कहिए । बहुरि चौथे महीने च्यारिमास विर्षे कीए दोष जाकरि निवारिए, सो चातुर्मासिक कहिए । बहुरि वर्षवें दिन एकवर्ष विर्ष कीए दोष जाकरि निवारिए, सो सांवत्सरिक कहिए । बहुरि गमन कर से निपज्या दोष जाकरि निवारिए; सो ऐपिथिक कहिए । बहुरि सर्व पर्याय संबंधी दोष जाकरि निवारिए; सो उत्तमार्थ है । जैसे सात प्रकार प्रतिक्रमण जानना।
सो भरतादि क्षेत्र पर दु:षमादिकाल, छह संहनन करि संयुक्त स्थिर वा अस्थिर पुरुषनि के भेद, तिनकी अपेक्षा प्रतिक्रमण का प्रतिपादक शास्त्र, सो प्रतिक्रमस नामा प्रकोर्सक कहिए ।
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