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सम्यग्ज्ञामन्दिका भाषाटीका ]
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असे अ नरक कहिए पापकर्म, ताका अपत्य कहिए तीहि का उदय से निपजे जे नारक तिनकी जो मति, सो नारक गति जाननी । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावनि वि वा परस्पर रत कहिए प्रीतिरूप नाही ते नरत, तिनकी जो गति सो नरतगति जाननी । निर्गत कहिए गया है अयः कहिए पुण्यकर्म, जिनित जैसे जै निरय, तिनिकी जो गति सो निरय गति जाननी । असे निरुक्ति करि नारकगति का लक्षण कहा ।
प्राग तियंचगति का स्वरूप कहै हैं - तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसंष्ण रिणगिठिमण्णाणा। अच्चंतपावबहुला, तहा तेरिच्छया भरिणया' ॥१४८॥ तिरोंचंति कुटिलभावं, सुविकृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञानाः ।
अत्यंतपापबहुलास्तस्मात्सरश्चिका भरिणताः ॥१४८॥
टीका - जाते जो जीव सुविवृतसंज्ञाः कहिए प्रकट' है आहार में आदि देकरि संज्ञा जिनके अंसे हैं । बहुरि प्रभाव, सुख, छ ति, लेश्या की विशुद्धता इत्यादिक करि हीन हैं, तातै निकृष्ट हैं । बहुरि हेयोपादेय का ज्ञान रहित है, तातै अशान हैं । बहुरि नित्यनिगोद की अपेक्षा अत्यंत पाप की है बहुलता जिनिकै असे हैं, तातै तिरोभाव जो कुटिलभाव, मायारूप परिणाम ताहि अंचंति कहिए प्राप्त होइ, ते तिर्यंच कहे हैं। बहुरि तिर्यच ही तैरश्च कहिए । यहा स्वार्थ विषे अग्. प्रत्यय का विधान हो है। अंसे जो तिर्यक् पर्याय, सोही तिर्यग्गति है, अंसा कहा है।
आग मनुष्य गति का स्वरूप कहै हैं - भण्णति जदो रिपच्चं, मररोग गिउरणा मणुक्कडा जह्मा । मण्णुभवा य सवे, तह्मा ते माणुसा भणिवा ॥१४६॥ मन्यते यतो नित्यं, मनसा निपुणा मनसोत्कदा पस्मार । मनूद्भवाश्च सर्वे, तस्मात्ते मानुषा भरिणताः ॥१४९॥
टोका - जाते जे जीव नित्य ही मन्यते कहिए हेयोपादेय के विशेष कौं जाने हैं । अथवा मनसा निपुणाः कहिए अनेक शिल्पी प्रादि कलानि विष प्रवीण हैं । अथवा
१. पटखेडागम - अवला पुस्तक , पृष्ठ २०३, गाथा १२६ २. पखंडागम - चला पुस्तक १, पृष्ठ २०४, गाथा १३०