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। मोम्मटसार जोक्करण माया १५०
'मनसोल्कर' कहिए अवधारणा आदि दृढ उपयोग के धारी हैं । अथवा 'मनोरुद्धवाः' कहिए कुलकरादिक ते निपजे है, तात ते जीव सर्व ही मनुष्य हैं, असें आगम विर्षे
आगे तियंच, मनुष्य गति के जीवनि का भेद दिखावे हैं - सामण्णा पंचिदी, पज्जत्ता जोणिणी अपज्जता । तिरिया जरा तहावि य, पंचिदियभंगदो हीणा ॥१५०॥
सामान्याः पद्रियाः, पर्याप्ता योनिमत्यः अपर्याप्ताः ।
तियंचो परास्तथापि च, पंचेंद्रियभंगतो होनाः ।।१५०॥
टीका - तियेच पांच प्रकार - १. सामान्य तिर्यच २. पंचेंद्री तिर्यच ३. पर्याप्त तिर्यंच ४. योनिमती तिर्यच ५. अपर्याप्त तियच । तहां सर्व ही तिथंच भेदनि का समुदायरूप, सो तो सामान्य तिथंच है । बहुरि जो एकेंद्रियादिक बिना केवल पंचेंद्री तिर्यंच, सो पंचेंद्री तिर्यच है । बहुरि जो अपर्याप्त बिना केवल पर्याप्त तियंच, सो पर्याप्त तिर्यच है । बहुरि जो स्त्रीवेदरूप तिर्यंचणी, सो योनिमती लियंच है । बहुरि जो लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच है, सो अपर्याप्त तिर्यंच है । जैसें तिर्यंच पंच प्रकार हैं।
बहुरि तैसे ही मनुष्य हैं । इतना विशेष - जो पंचेंद्रिय भेद करि हीन है, तातै सामान्यादिरूप करि च्यारि प्रकार है । जातें मनुष्य सर्व ही पंचेंद्री है, तातै जुदा भेद तिर्यंचवत् न होइ । तातें १. सामान्य मनुष्य २. पर्याप्त मनुष्य ३. योनिमती मनुष्य ४. अपर्याप्त मनुष्य ए च्यारि भेद मनुष्य के जानने ।
तहां सर्व मनुष्य भेदनि का समुदाय रूप, सो सामान्य मनुष्य है । केवल पर्याप्त मनुष्य, सो पर्याप्त मनुष्य है । स्त्रीवेदरूप मनुष्यणी, सो योनिमती मनुष्य है । लब्धि अपर्याप्तक मनुष्य सो अपर्याप्त मनुष्य है । . आगे देवगति को कहै हैं -
दिव्यंति जदो णिच्चं, गुणेहि अठेहि दिब्वभाहिं । भासंतदिव्यकाया, तह्मा ते वणिया देवा ॥१५१॥
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१. षटखंडागम-घपला पुस्तक ३, पृष्ठ २०४, गाथा १३१