________________
-.
4 - taran :- * ........--
-
-
-
२२० ]
[गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १११ टीका - एवं कहिए इस ही प्रकार जैसे सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान कौं प्रादि देकरि सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्त वायुकायिक जीय का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त पूर्वोक्त प्रकार चतु:स्थान पतित प्रदेश वृद्धि का अनुक्रम विधान कह्या, तैसें ऊपरि भी सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक तेजकाय का जघन्य अवगाहन तै लगाइ द्वींद्रिय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त जीवसमास का अवगाहना स्थानकनि का अन्तरालनि विर्षे प्रत्येक जुदा-जुदा चतुःस्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुणकार की उत्पत्ति का विधान जानना।
भावार्थ - जैसे सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान अर सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान के बीचि अन्तराल विर्षे चतुःस्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान कहा । तैसे ही सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त अर सूक्ष्म तेजाकायिक सबि अपर्याप्त समय था ही द्वींद्रिय पर्याप्त का जघन्य प्रदयाहन स्थान पर्यंत अगिले अंतरालनि विष चतुःस्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान जानना । विशेष इतना - तहाँ प्रादि अवगाहन स्थान का वा भाग वृद्धि, गुण वृद्धि विर्षे असंख्यात का प्रमाण वा अनुक्रम या स्थानकनि का प्रमाण इत्यादि यथासंभव जानने ।
बहुरि तैसें ही ताके आगे लेइंद्री पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान आदि देकरि संज्ञी पंचेंद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत अवगाहन स्थानकनि का एकएक अन्तराल विर्षे असंख्यात गुरण वृद्धि बिना त्रिस्थान पतित प्रदेशनि की वृद्धि का अनुक्रम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुरगकार की उत्पत्ति का विधान जानना ।
___ भावार्थ - इहाँ पूर्वस्थान ते अगिला स्थान संख्यात गुणा ही है । तात तहाँ असंख्यात गुण वृद्धि न संभव है, त्रिस्थान पतित वृद्धि ही संभव है। इहां भी विशेष इतना - जो प्रादि अवगाहना स्थान का वा भाग वृद्धि विर्षे असंख्यात का वा गुण वृद्धि विष संख्यात का प्रमाण वा अनुक्रम वा स्थानकनि का प्रमाण इत्यादिक यथासंभव जानने । ऐसें इहाँ प्रसंग पाइ चतु:स्थान पतित वृद्धि का वर्णन किया है।
बहुरि कहीं षट्स्थान पतित, कहीं पंचस्थान पतित, कहीं चतुःस्थान पतित, कहीं त्रिस्थान पतित, कहीं द्विस्थान पतित, कहों एकस्थान पतित वृद्धि संभव है। अथवा कहीं ऐसे ही हानि संभव है, तहां भी ऐसे ही विधान जानना। तहां जाका निरूपण होइ ऐसा जो विवक्षित, साके पारि स्थान के प्रमाण तें अगले स्थान विर्षे
-
-
-
-