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सम्यम्झानचन्द्रिका भाषाटीका ।
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छित्वा च पर्यायं, पुराणं यः स्थापयति प्रारमानम् ।
पंजायमे धर्म स. छेदोपस्थापको जोवः ॥४७॥ ___टीका -- सामायिक चारित्र कौं धारि, बहुरि प्रमाद ते स्खलित होइ, सावध क्रिया को प्राप्त हूवा असा जो जीव, पहिले भया जो सावध रूप पर्याय ताका प्रायश्चित्त विधि से छेदन करि अपने प्रात्मा कौं व्रतधारणादि पंच प्रकार संयमरूप धर्म विर्षे स्थापन कर; सोई छेदोपस्थापन संयमी जानना।
छेद कहिए प्रायश्चित्त तीहिकरि उपस्थापन कहिए धर्म विर्षे प्रात्मा कौं स्थापना; सो जाके होइ, अथवा छेद कहिए अपने दोष दूर करने के निमित्त पूर्व कीया था तप, तिसका उस दोष के अनुसारि विच्छेद करना, तिसकरि उपस्थापन कहिए निर्दोष संयम विर्षे आत्मा की स्थापना; सो जाके होइ, सो छेदोपस्थापन संयमी है ।
अपना तप का छेद हो हैं, उपस्थापन जाकै; सो छेदोपस्थापन है, अंसी निरुक्ति जानना ।
पंच-समिदो ति-गुत्तो परिहरइ सदा वि जो हु सावज्जं । पंचेक्कजमो युरिसो, परिहारयसंजदो सो हु ॥४७२॥
पंचसमितः त्रिगुप्तः, परिहरति सदापि यो हि सायद्यम् ।
पंचकयमः पुरुषः, परिहारकसंयतः स हि ॥४७२॥ टीका - पंच समिति, तीन गुप्ति करि संयुक्त जो जीव, सदा काल हिसारूप सावध का परिहार करै; सो पुरुष सामायिकादि पंच संयमनि विर्षे परिहारविशुद्धि नामा संयम का धारी प्रकट जानना ।
तीसं वासो जम्मे, वासपुधत्तं खु तित्थयरमूले। पंचक्खाणं पढिदो, संझणद्गाउयविहारो ॥४७३॥
त्रिंशद्वार्षो जन्मनि, वर्षपृथक्त्वं खलु तीर्थकरमूले । प्रत्याख्यानं पठितः, संध्योनद्विगव्यूतिविहारः ॥४७३॥
१. षट्खंडागम - पवला पुस्तक १, पृष्ठ ३७४, गाथा सं. १८१ २. पाठभेद -पंच-जमेर-जमो था।