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[गोम्मटसार जीवकामह गाया ४७४
टीका - जो जन्म ते तीस वर्ष का भाया होद ! नहरि सर्वदा खानपानादि से सुखी होइ; असा पुरुष दीक्षा कौं अंगीकार करि पृथक्त्व वर्ष पर्यंत तीर्थंकर के पाद मूल प्रत्याख्यान नामा नवमा पूर्व का पाठी होइ; सो परिहारविशुद्धि संयम कौं अंगीकार करि, ती संध्या काल विना सर्व काल विर्षे दोय कोस विहार करें । अर रात्रि विर्षे बिहार न करें। वर्षा काल विषै किछ नियम नाही, ममन करै वा न करे; असा परिहारविशुद्धि संयमी हो है । .
परिहार कहिए प्राणीनि की हिंसा का त्याग, ताकरि विशेषरूप जो शुद्धिः कहिए शुद्धता, जाविर्षे होइ; सो परिहारविशुद्धि संयम जानना ।
इस संयम का जघन्य काल तौ अंतर्मुहूर्त है, जातें कोई जीव अंतर्मुहर्तमात्र तिस संयम की धारि अन्य गुणस्थान को प्राप्त होइ, तहाँ सो संयम रहै नाही; तातें जघन्य काल अंतर्मुहूर्त कहा ।
बहरि उत्कृष्ट काल अडतीस वर्ष घाटि कोडि पूर्व है । जाते कोई जीव कोडि पूर्व का धारी तीस वर्ष का दीक्षा ग्रहि, आठ वर्ष पर्यंत तीर्थकर के निकटि पढे, तहां पीछ परिहारविशुद्धि संयम कौं अंगीकार कर; तातै उत्कृष्टकाल अडतीस वर्ष पाटि कोडि पूर्व कहा। उक्तं च
परिहारधिसमेतो जीवः षटकायसंकुले विहरन् ।
पयसेव पनपत्रं, न लिप्यते पापनिवहेन ।। याका अर्थ - परिहार विशुद्धि ऋद्धि करि संयुक्त जीव, छह कायरूप जीवनि का समूह विर्षे विहार करता जल करि कमल पत्र की ताई पाप करि लिप्त न होइ ।
अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो था। सो सुहमसंपराओ, जइखादेणूणो किंचि ॥४७४॥
अणुलोभं विवन् जीवः उपशामको वा क्षपको वा । स सूक्ष्मसापरायः यथाख्यातेनोनः किंचित् ।।४७४।।
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१. षट्खंडागम-घधला पुस्तक १, पृष्ठ ३७५ गाथा सं. १६० ।
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