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। गोम्मटसार जीवकाण्ड'गाथा २८९ टीका - नरक, तियंच, मनुष्य, देव विर्षे उत्पन्न भया, जीव के पहिला समय विष क्रम ते क्रोध, मान, माया लोभ का उदय हो है । नारकी उपजै तहां उपजते ही पहले समय क्रोध कषाय का उदय होइ । असे तिथंच के माया का, मनुष्य के मान का, देव के लोभ का उदय जानना । सो असा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धांत का कर्ता यतिवृषभ नामा आचार्य, ताके अभिप्राय करि जानना ।
बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धांत का कर्ता भूतबलि नामा प्राचार्य, ताके अभिप्राय करि पूर्वोक्त नियम नाहीं । जिस तिस कोई एक कषाय का उदय हो है । असे दोऊ आचार्यनि का अभिप्राय विर्षे हमारे संदेह है; सो इस भरतं क्षेत्र विर्षे केवली श्रुतकेवली नाहीं; वा समीपवर्ती आचार्यनि के उन प्राचार्यनि ते अधिक ज्ञान का धारक नाहीं; तातै जो विदेह विर्षे गये तीर्थक रादिक के निकटि शास्त्रार्थ विर्षे संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय का दूर होने करि निर्णय होई, तब एक अर्थ का निश्चय होइ तातें हमौने दोऊ कथन कीए हैं।
अरपपरोभय-बाधण बंधासंजम-णिमित्त-कोहादी। जास त्थि कसाया, अमला अकसाइणो जीवा ॥२८॥
प्रात्मपरोभयबाधनबंधासंयमनिमित्तक्रोधादयः ।
येषां न संति कषाया, अमला अकायिणो जीथाः १२८९।। टीका - आपकौं व परकौं था दोऊ को बंधन के वा बाधा के वा असंयम के कारणभूत जैसें जु क्रोधादिक कषाय वा पुरुष वेदादिरूप नोकषाय, ते जिनके न पाइये, ते द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म मल करि रहित सिद्ध भगवान अकषायी जानने । उपशांत कषाय से लेकर च्यारि मुणस्थानवी जीव भी अकषाय निर्मल हैं । तिनके गुणस्थान प्ररूपणा ही करि अकषायपना की सिद्धि जाननी। तहां कोऊ जीव के तौ क्रोधादि कषाय असे हो हैं, जिनसे आप ते श्राप को बांध, पाप ही आप के मस्तकादिक का घात करें। आप ही आप के हिसादि रूप असंयम परिणाम करै । बहुरि - कोई जीव के क्रोधादि कषाय असे हो हैं, जिनते और जीवनि को बांध, मारें, उनके असंयम परिणाम करावै । बहुरि कोई जीव के क्रोधादि कषाय अॅसें हो हैं, जिनते अप का बा और जीवनि का बांधना, छात करना, असंयम होना होइ, सो असें ए कषाय अनर्थ के मूल हैं।
१ षखंडागम-धघका पुस्तक १, पृ० ३५३, पाथा सं० १७८,
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