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मार्गदर्श
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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ७३२-३४
गुणजीव ठाणरहिया, सण्णापज्जतिपाणपरिहीणा । सेवगणा, सिद्धा सुद्धा सदा होंति ॥७३२॥
गुणजीवस्थानरहिताः संज्ञापर्याप्तिप्राणपरिहीनाः । शेषनमार्गगोताः सिद्धाः शुद्धाः सदा भवति ॥७३२॥
- गुणस्थान वा चौदह जीवरामासनि करि रहित हैं । बहुरि च्यारि संज्ञा, छह पर्याप्ति, दश प्राणनि करि रहित हैं । बहुरि सिद्ध गति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, अनाहार इनि बिना श्रवशेष नव मार्गणानि करि रहित हैं । असे सिद्ध परमेष्ठी द्रव्यकर्म भावकर्म के प्रभाव तें सदा काल शुद्ध हैं ।
frera एत्थे, यापमाणे निरुत्तिप्रणियोगे । माइ वीसं भेयं, सो जाणइ अप्पसम्भावं ।।७३३ ॥
निक्षेपे एकार्थे, नयप्रमाणे निरुक्तचतुयोगयोः । मार्गयति विशं भेदं स जानाति श्रात्मसद्भावम् ॥७३३॥
टोका नाम, स्थापना, द्रव्य, भावरूप च्यारि निक्षेप बहुरि प्राणी, भूत, जीव, सत्व इनि च्यारयोनि का एक अर्थ है, सो एकार्थ । बहुरि द्रव्याथिक, पर्यायार्थिक नय; बहुरि मतिज्ञानादिरूप प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाण, बहुरि जीव है, जीवंगा, जीया अँसा जीव शब्द का निरुक्ति । बहुरि
" कस्स के
कत्यवि केवचिरं कतिविहाय भावा"
कहा ? किसके ? किसकरि ? कहां ? किस काल ? के प्रकार भाव है । असें छह प्रश्न होते निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान इन छहों तें सावना, सो यह नियोग असे निक्षेप, एकार्थ, नय, प्रमाण, निरुक्ति, नियोगनि विषै जो भव्य जीव गुरणस्थानादिक बीस प्ररूपणा रूप भेदनि कों जाने हैं, सो भव्य जीव आत्मा के सत-समीचीन भाव को जानें है ।
अज्जज्जसेण - गुरणगणसमूह संधारि प्रजियसेणगुरू । भुवणगुरू जस्स गुरू, सो रायो गोम्मटो जयदु ॥७३४॥