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मोटसार जीजकाण्ड गाथा १९६
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तीर्थकर परमदेव के उपदेश ते परंपराय क्रम करि चल्या प्राया संप्रदाय करि शास्त्र का अर्थ धरि करि हमहूं कहे हैं; ते जानने ।।
उववादमारणतिय, परिणदतसमझिऊण सेसतसा । तसणालिबाहिरहिह य, गत्थि ति जिणेहि णिद्दिल ॥ १६६ ॥
उपपादमारणांतिकपरिणसत्रसमुज्झित्वा शेषत्रसाः। .
असनालीवाटे च, न संतीति जिननिदिष्टम् ।। १९९ ।। टीका - विवक्षित पर्याय का पहला समय विर्षे पर्याय की प्राप्ति, सो उपपाद कहिए । बहुरि मरण जो प्राण त्याग पर अंत जो पर्याय का अंत जाकै होइ, सो मरणांतकाल, वर्तमान पर्याय के प्रायु का अंत अंतर्मुहूर्त मात्र जानना । तीहि मरणांतकाल विष उपज्या, सो मारणांतिकसमुद्धात कहिए। अागामी पर्याय के उपजने का स्थान पर्यंत प्रात्मप्रदेशनि का फैलना, सो माररणांतिकसमुद्धात जानना । असा उपपादरूप परिणम्या पर मारणांतिक समुद्धातरूप परिणम्या पर चकार ते केवल समुद्धात रूप परिणम्या जो त्रस, तीहि बिना स्थाननि विर्षे अवशेष स्वस्थानस्वस्थान अर विहारक्तस्वस्थान पर अवशेष पांच समुद्धातरूप परिममे सर्व ही असजीव, सनाली वारै जो लोक क्षेत्र, तीहि विर्षे न पाइए हैं; जैसा जिन जे अर्हतादिक, तिनिकरि कहा है । ताते जैसे नाली होई, तैसे अस रहने का स्थान, सो असनाली जाननी । अस नाली इस लोक के मध्यभाग विर्षे चौदह राज ऊंची, एक राजू चौड़ीलंबी सार्थक नाम धारक जाननी । अस जीव त्रसनाली विष ही हैं । बहुरि जो जीव प्रसनाली के बाह्य वातवलय विर्षे तिष्ठता स्थावर था, उसने अस का आयु बांधा। बहरि सो पूर्व वायुकायिक स्थावर पर्याय को छोडि, आगला विग्रहगति का प्रथम समय विर्षे अस नामा नामकर्म का उदय अपेक्षा करि सनाली के बाह्य त्रस हूवा, ताते उपपादवाले त्रस का अस्तित्व सनाली बाह्य कहा। बहुरि कोई जीच बसनाली के माहि वस हैं, बहुरि असनाली बाहिर तनुवातवलय संबंधी वायुकायिक स्थावर का बंध किया था । सो आयु का अंतर्मुहूर्त अवशेष रहै, तब आत्मप्रदेशनि का फैलाव जहां का बंध किया था, तिस स्थानक सनाली के बाह्य तनुदातवलय पर्यन्त गमन करें । तातै मारणांतिक समुद्धातवाले बस का अस्तित्व असनाली बाह्य कहा।
__बहुरि केवली दंड-कपाटादि प्राकार करि त्रसनाली बार अपने प्रदेशनि का फैलावनरूप समुद्घात करै हैं। तातै केवलसमुद्धात वाले त्रस का अस्तित्व बसनाली