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सम्यमानन्धिका मावाटोका ]
[ ७३५ रिक मिश्रयोग पाइए है । बहुरि औदारिक वा औदारिक-मिथ ए दोऊ योग मनुष्य अर तिर्यचनि ही के हैं; असा जिनदेवने कह्या है । बहुरि औदारिक विर्षे तो पर्याप्त सात जीवसमास हैं, अर श्रीदारिक मिश्र विर्षे अपर्याप्त सात जीवसमास पर सयोगी के एक पर्याप्त जीवसमास असे आठ जीवसमास हैं।
वेगुव्वं पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु । ... सुर-णिरय-चउठाणे, मिस्से ण हि मिस्सजोगो हु॥६८२॥
वैगूर्व पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रं तु ।
सुरनिरयचतुःस्थाने, मिश्रे नहि मिश्रयोगो हि ।।६८२॥ टोका - वैक्रियिक योग पर्याप्त देव, नारकीनि के मिथ्यादृष्टी नै लगाइ च्यारि गुरगस्थाननि विर्षे हैं । बहुरि वैक्रियिक-मित्र योग मिश्रगुणस्थान विर्षे नाही; ताते देवनारकी संबंधी मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत इनही विर्षे हैं । बहुरि जीवसमास वैक्रियिक विषै एक सैनी पर्याप्त है। अर वैक्रियिक मिश्र विर्षे एक सैनी नित्ति-- अपर्याप्त है।
आहारो पज्जत्ते, इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु । अंतोमुत्तकाले, छठ्ठगुरणे होदि आहारो॥६८३॥
आहारः पर्याप्ते, इतरे खलु भवति तस्य मिश्रस्तु ।
अंतर्मुहूर्तकाले, षष्ठगुणे भवति अाहारः ॥६८३॥ टोका - आहारक योग सैनी पर्याप्तक छट्ठा गुणस्थान विर्षे जघन्यपर्ने वा उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त काल विर्षे ही है । बहुरि श्राहारक-मिश्र योग है, सो इतर जो संज्ञी अपर्याप्तरूप छट्ठा गुणस्थान विर्षे जघन्यपर्ने वा उत्कृष्टपने अंतर्मुहूर्त काल विर्षे हो हो है । ताते तिन दोऊनि के गुणस्थान एक प्रमत्त अर जीवसमास सोई एक एक जानना।
ओरालियमिस्सं वा, चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं । चदुगदिविग्गहकाले, जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ॥६८४॥
पौरालिकमिश्रो वा, चतुर्गुरणस्थानेषु भवति कार्मणम् । चतुर्गतिविग्रहकाले, योगिनश्च प्रतरलोकपूरपके ।।६८४॥