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[ मोटसार जीयका गाया ६५५-६८७
. टीका - कामरिणयोग औदारिक मिश्नवत् च्यारि गुरणस्थाननि विर्षे हैं । सो फार्मागयोगः च्यार्यो गति संबंधी विग्रहगति विर्षे बा सयोगी के प्रतर लोक पूरण कोल विष पाइए हैं । तातें 'गुणस्थान च्यारि अर जीवसमास पाठ औदारिक मिश्रवत् इहां जानने।
थावरकायप्पहुदी, संढो सेसा असंण्णिादी य । अणियटिस्स य पढमो; भागो त्ति जिणेहि णिद्दिठं ॥६८५॥
स्थावर कायाभूतिः, पं. शेषा प्रशस्योदयश्च । ।
अनिवृतेश्च प्रथमो, भागः इति जिनिर्दिष्टम् ॥६८५॥ टीका - वेदमार्गणा विर्षे नपुंसकवेद है, सो स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ अनिवृत्तिकरण का पहिला सवेद भागपर्यंत हो है; तातै गुणस्थान नव, जीवसमास सर्व चौदह हैं । बहुरि शेष स्त्रीवेद अंर पुरुषवेद सैनी, असैनी पंचेंद्रिय मिथ्यादृष्टी तें लगाइ, अनिवृत्तिकरण का अपना-अपना संबेद भागंपर्यंत हैं । तातें गुरास्थान नव, जीवसमास सैनी, प्रसनी, पर्याप्त वा अपर्याप्तरूप च्यारि जिनदेवनि करि कहे हैं। :
थावरकायप्पहुदी, प्रणियट्टीबितिचउत्थभागो ति । कोहतियं लोहो पुण, सुहमसरागो ति विष्णेयो ॥६८६॥
स्थावरकायप्रभृति, अनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्थभाग इति ।
क्रोधत्रिकं लोभः पुनः, सूक्ष्भंसराग इति विज्ञेयः ॥६८६।। टोका - कषायमार्गणा विष स्थावरकाय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्रोध, मान, माया तौ क्रमते अनिवृत्तिकरण का दूसरा, तीसरा, चौथा भागपर्यंत हैं । पर लोभ सूक्ष्मसापराय पर्यंत. है; सात क्रोध, मान, माया विर्षे गुणस्थान नव, लोभविष दश; पर जीवसमास सर्वत्र चौदह जानने ।
थावरकाय पहुदी, मदिसुदनण्णाणयं विभंगो दु। . .. सण्णीपुण्णप्पहुयो, सासरणसम्मो त्ति गायब्वो ॥६८७॥
स्थावरकायप्रभृति, मतिश्रुनाज्ञानकं विभंगस्तु । संज्ञिपूर्णप्रभृति, सासनसम्यगिति ज्ञातव्यः ॥६८७॥
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