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संग्यकामपन्द्रिका भाषाका
..": : टीका - ज्ञानमार्गमा विष कुमति, कुश्रुत अज्ञान दोऊ स्थावर काय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सासादनपर्यत हैं। तातें तहां गुणस्थान दोय, अर जीवसमास चौदह हैं । बहुरि विभंगज्ञान संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी आदि सासादन पर्यंत जानना; तातें गुणस्थान दोय अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है।
: सण्णाणतिगं अविरदसम्मादी छठगादि मरणपज्जो। ... खोणकसायं जाव दु, केवलणाणं जिणे सिद्धे ॥६॥ . .
- सद्ज्ञानंत्रिकमविरतसम्यमादि षष्ठकादिमनःपर्ययः ।
क्षीरणकषायं यावत्तु, केवलज्ञान जिने सिद्धे ॥६८८॥ टीका - मति, श्रुत, अवधि ए तीन सम्यग्ज्ञान असंयतादि क्षीणकषाय पर्यंत हैं; ताने गास्थान नब अर, जीटसमास सनी पर्याप्त अपर्याप्त ए दोय जानने । बहुरि मनःपर्ययज्ञान छट्ठा ते क्षीणकषाय पर्यंत है। ..तात. गुणस्थान सात अर जीवसमास एक सैनी पर्याप्त ही है । मनःपर्यवज्ञानी के प्राहारक ऋद्धि न होइ; तात आहारक मिथ अपेक्षा भी अपर्याप्तपना न संभव है। बहुरि केवलज्ञान सयोगी, अयोगी अर सिद्ध विष हैं; तातै गुणस्थान दोय, जीवसमास सैनी पर्याप्त अर सयोगी की अपेक्षा अपर्याप्त ए दोय जानने ।
अययो त्ति हु अविरमणं, देसे देसो पमत्त इदरे य । परिहारो सामाइयछेदो छादि थूलो ति ॥६६॥ . सहमो सहमकसाय, संते खोरणे जिणे जहक्खादं । संजममग्गणभेदा, सिद्धे गस्थिति णिजिंठं ॥६६०॥ जुम्भ ।।
प्रयत इति अविरमणं, पेशे बेशः प्रमत्तेतरस्मिन च । परिहारः सामायिकश्छेदः षष्ठादिः स्थूल इति १६८९॥ . सूक्ष्मः सूक्षमकवाये, शांत क्षीणे जिने यथास्यालम् ।
संयममार्गणा भेदाः, सिद्धेन संतीति निदिष्टम् ।।६१०॥ टीका - संयममार्गणा विर्षे असंयम है; सों मिथ्यादृष्टयादिक असंयत पर्यंत च्यारि गुणस्थाननि विर्षे है । तहां जीवसमास चौदह हैं । बहुरि देशसंयम एकदेश
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