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[ गोम्मटसार जोक्षकाण माथा ६७६-६८१ जीवसमास हैं। बहुरि कायमार्गणा विर्षे पृथ्वी आदि पंच स्थावरनि में एकेंद्रियवत् च्यारि च्यारि जीवसमास हैं। अस विर्षे अवशेष दश जीवसमास हैं।
मज्झिम-चउ-मण-वयरणे, सण्णिप्पयि दु जाव खीणो ति। सेसारणं जोगि त्ति य, अणुभयक्यणं तु वियलादो ॥६७६॥
मध्यमचतुर्मनवमनयोः, संज्ञिप्रतिस्तु यावत् क्षीण इति ।
शेषाणां योगीति च, अनुभयवचनं तु विकलतः ।।६७९।। टोका - मध्यम जो असत्य पर उभय मन वा वचन इनि च्यारि योगनि विष सैनी मिथ्यादृष्टी ते लगाइ क्षीणकषाय पर्यंत बारह गुणस्थान हैं। बहुरि सत्य पर अनुभव मनोयोग विर्षे अर सत्य वचन योग विर्षे सैनी पर्याप्त मिथ्यादृष्टी ते लगाइ सयोगी पर्यंत तेरह गुणस्थान हैं । बहुरि इनि सबनि विर्षे जीवसमास एक सैनी पर्याप्त है । बहुरि अनुभय वचनयोग विर्षे विकलत्रय मिथ्यादृष्टी ते लगाइ तेरह गुणस्थान हैं । बहुरि बेइद्री, तेइंद्री, चौइद्री, सैनी पंचेंद्री, असनी पंचेंद्री इनका पर्याप्तरूप पांच जीवसमास हैं ।
ओरालं पज्जत्ते, थावरकायादि जाव जोयो ति। तम्मिस्समपज्जते, चदुगुणठाणेसु णियमेण ॥६८०॥
औराल पर्याप्ते, स्थावरकायादि यावत् योगीति ।
तन्मिश्रमपर्याप्ते, चतुर्गुणस्थानेषु नियमेन ॥६८०॥ टीका - औदारिक काययोग एकेंद्री स्थावर पर्याप्त मिथ्यादृष्टी ते लगाइ, संयोगी पर्यंत तेरह मुणस्थाननि विर्षे है। बहुरि औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्त च्यारि गुणस्थाननि विषं ही है नियमकरि । किनविर्षे ? सो कहैं हैं--
मिच्छे सासरणसम्मे, पुवेदयदे कवाडजोगिम्मि । . . णर-तिरिये वि य दोणि वि, होति ति जिणेहिं णिद्दिळं ॥६०१॥
मिथ्यात्वे सासनसम्यक्त्वे, पुंयेदायते कपाटयोगिनि ।
नरतिरश्चोरपि घ द्वावपि भवंतीति जिननिर्दिष्टम् ॥६८१॥ . टोका - मिथ्यादृष्टी, सासादन पुरुषवेद का उदय करि संयुक्त असंयत, कपाट समुद्धात सहित सयोगी इनि अपर्याप्तरूप च्यारि गुणस्थाननि विर्षे, सो औदा
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