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सभ्यसामपन्निका भाकाटोमा ]
प्रागै पर्याप्ति, निवृत्ति अपर्याप्ति काल का विभाग कहै हैं --- यज्जतस्स य उपये, णियणियपज्जत्तिणिट्ठिदो होदि । जाव शरीरमपुण्णं, रिणवत्तिअपुष्णगो ताव ॥ १२१॥
पर्याप्तस्य च उदये, निमनिजपर्याप्सिनिष्ठितो भवति ।
यावत् शरीरमपूर्ण, निवृत्यपूर्णफस्तावत् ।। १२१ ॥ टीका -- पर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय होते अपने-अपने एकेंद्रिय के च्यारि, विकलैंद्रिय के पांच, सैनी पंचेंद्रिय के छह पर्याप्तिनि करि 'निष्ठिताः' कहिए संपूर्ण शक्ति युक्त होंइ, तेई यावत् काल शरीर पर्याप्ति दूसरा, ताकरि पूर्ण न होंइ, तावत् काल एक समय पाटि शरीर पर्याप्ति संबंधी अंतहत पर्यन्त निवृत्ति अपर्याप्ति कहिए । जाते निवृत्ति कहिए शरीर पर्याप्ति की निष्पत्ति, तीहि करि जे अपर्याप्त कहिए संपूर्ण न भए, ते निवृत्ति अपर्याप्त कहिए है ।।
पा, लब्धि अपर्याप्त का स्वरूप कहै हैं -
उदये दु अपुण्णस्स य, सगसगपज्जत्तियं रग गिट्ठवदि। . अन्तोमहत्तमरण, लद्धिअपज्जतगो सो दु ॥ १२२ ॥ उदये लु अपूर्णस्य च, स्वकस्थकपर्याप्तिन निष्ठापयति ।
अन्तर्मुहूर्तमरणं, लब्ध्यपर्याप्तकः स तु ॥ १२२॥ टोका - अपर्याप्ति नामा नामकर्म के उदय होते संतै, अपने-अपने एकेंद्रिय विकलेंद्रिय, सैनी जीव च्यारि, पांच, छह पर्याप्ति, तिनिकों न 'निष्ठापयति' कहिए सम्पूर्या न करें, उसास का अठारहवां भाग प्रमाण अंतर्मुहूर्त ही विषं मरण पावें, ते जीव लब्धि अपर्याप्त कहिए । जाते लब्धि कहिए अपने-अपने पर्याप्तिनि की संपूर्णता की योग्यता, तीहि करि' अपर्याप्त कहिए निष्पन्न न भए, ते लब्धि अपर्याप्त कहिए ।
प्रागें एकेद्रियादिक संजी पर्यन्त लब्धि अपर्याप्तक जीवनि का निरंतर जन्म वा मरण का कालप्रमाण कौं कहै हैं --
तिण्णिसया छ्त्तीसा, छावट्टिसहस्सगाणि मरणाणि । अन्तोमुत्तकाले, तावदिया चैव खुद्दभवा ।। १२३ ॥