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सम्पादकीय
करणानुयोग के महान आचार्य श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तुचक्रवर्ती ने ग्यारहवीं सताब्दि में गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार ग्रन्थों की रचना प्राकृत गाथाओं में को, जिस पर प्राचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने अठारहवीं शताब्दि में ढारी भाषा में “सम्याज्ञानचन्द्रिका" नामक भाषा टीका लिखी है। त्रिलोकसार एवं सुप्र ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह भी प्राचार्य श्री नेमीचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती को ही रचनाएँ हैं।
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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का प्रकाशन इससे पूर्व मात्र एक ही बार जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकर: हुमागा, जोकित रह से अनुपलब्ध है. इसलिए पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट ने इसका पुनर्प्रकाशन करके करणानयोग के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शास्त्र की दीर्घकालीन सुरक्षा का उत्तम उपाय किया है। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की महिमा के सम्बन्ध में पण्डित टोडरमलजी के समकालीन स्वाध्यायशील ७० पण्डित राजमल्लजी ने अपने "चर्चा संग्रह" में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे द्रष्टव्य हैं :
"सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की महिमा वचन अगोचर है, जो कोई जिन धर्म की महिमा और केवलज्ञान की महिमा जाणी चाही तो, या सिद्धान्त का अनुभव करो। घरमी कहिता करि
कहा।"
इस ग्रन्थ की महिमा एवं विशेषता को समझने के लिए उपरोक्त विभार ही पर्याप्त है, अपनी ओर से और कुछ लिखने की प्रावश्यकता प्रतीत नहीं होती है।
संपूर्ण सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका का एकसाथ एक ही खण्ड में प्रकाशन करने से इसका आकार वहत ही बड़ा हो जाता, जिससे स्वाध्याय में असुविधा हो सकती थी। इसलिए इसका तीन भागों में प्रकाशन करने का निर्णय लिया गया। उनमें से प्रस्तुत संस्करण में गोम्मटसार जीवकाण्ड की सम्परज्ञानचन्द्रिका टीका को प्रथम भाग के रूप में प्रकाशित किया है।
इस ग्रन्थ के संपादन के लिए सर्वप्रथम हमने छह हस्तलिखित प्रतियों से इसका मिलान किया । मिलान करते समय हमारे सामने जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित और पं. गंगाधरलाल जैन, न्यायतीर्थ एवं श्रीलाल जैन काव्यतीर्थ द्वारा संपादित प्रति ही मूल आधार रही है । अन्य छह हस्तलिखित प्रतियों का विवरण इसप्रकार है:१. (अ) प्रति -- श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर तेरह पंथियान, जयपुर (राज.)
काल -पण्डित टोडरमलजी की स्वहस्तलिखित विक्रम संवत १८१० की प्रति के आधार से विक्रम संवत् १८६१ में लिखी हुई प्रति । लिपिकार--अजाल (अक्षर सुन्दर व स्पष्ट हैं)