________________
२. (च) प्रति - श्री दिगम्बर जैन मन्दिर भदीचंदजी, जयपुर (राज.)
काल-अज्ञात
लिपिकार--अनेक लिपिकारों द्वारा लिखित एवं पण्डित टोडरमलजी द्वारा संशोधित प्रति । ३. (क) प्रति-श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, पादर्शनगर, जयपुर (राज.)
काल-विक्रम संवत् १८२६, आषाढ़ सुदी तीज, गुरुवार ।
लिपिकार-गोविन्दराम। ४. (ख) प्रसि–श्री चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर, फिरोजाबाद (उ० प्र०)
काल-विक्रम संवत् १८१८
लिपिकार-अज्ञात । t. प्रति श्री विशाबर जैन मन्दिर संघीजी, जयपुर (राज.)
काल-विक्रम संवत् १९७०, माघ शुक्ला पंचमी।
लिपिकार-श्री जमनालाल पार्मा । ६. (घ) प्रति-श्री दिगम्बर जैन मन्दिर दीवान भदीचंदजी, जयपुर (राज.)
काल-विक्रम संवत् १८६१, पौष बदी बारस । लिपिकार-श्री लालचन्द महात्मा देहा, श्री सीताराम के पठनार्थ ।
इस ग्रंथ का संपादन करते समय हमने जिन बातों का ध्यान रखा है, उनका उल्लेख करना उचित होगा । वे बिन्दु इसप्रकार हैं :
(१) छह हस्तलिखित प्रतियों से मिलान करते समय जहाँ पर भी परस्पर विरुद्ध कथन. आये, उनमें से जो हमें शास्त्र सम्मत प्रतीत हुआ उसे ही मूल में रखा है और अन्य प्रतियों के कथन को फुटनोट में दिया है। और जहाँ निर्णय नहीं कर पाये हैं, वहीं छपी हुई प्रति को ही मूल में रखकर अन्य प्रतियों का कथन फुटनोट में दिया है।
(२) पीठिका में विषयवस्तु के अनुसार सामान्य प्रकरण, मोम्मटसार (जीवकाण्ड संबंधी प्रकरण, मोम्मटसार कर्मकाण्ड संबंधी प्रकरण, लब्धिसार-क्षपणासार संबंधी प्रकरण - ये शीर्षक हमने अपनी तरफ से दिये हैं, मूल में नहीं।
(३) संपूर्ण ग्रंथ में स्वाध्याय को सुलभता के लिए विषयवस्तु के अनुसार बड़े-बड़े अनुच्छेदों (पैराग्राफों) को विभाजित करके छोटे-छोटे (पैराग्नाफ) बनाये हैं। साथ ही टीका में समागत प्रश्नोत्तर अथवा शंका-समाधान भी अलग अनुच्छेद बनाकर दिये हैं।
(४) गाथा के विषय का प्रतिपादक जीर्षकात्मक वाक्य मूल टीका में गाथा के बाद टीका के साथ दिया है, लेकिन गाथा पढने से पूर्व उसका विषय ध्यान में पाये -- इसीलिए उस वाक्य को हमने गाथा से पहले दिया है।