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गोम्मटसार मीका गाभर ६७६
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७३२ ] ... आगे इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं -
णाणुवजोगजुदाणं, परिमाणं णाणमग्गणं व हवे। दसणुवजोगियारणं, दसणमग्गण व उत्तकमो ॥६७६॥
ज्ञानोपयोगयुक्तानां दरिमा शायरया ।
दर्शनोपयोगिनां दर्शनमार्गणावदुक्तक्रमः ॥६७६॥ : टीका - ज्ञानोपयोगी जीवनि का परिमाण ज्ञानमार्गणावत् है । बहुरि दर्शनोपयोगी जीवनि का परिमाण दर्शनमार्गणावत् है । सो कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभंगशानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, बहुरि तिर्यच-विभंगज्ञानी, मनुष्य-विभंगज्ञानी, नारक-विभंगज्ञानी, इनिका प्रमाण जैसे ज्ञानमार्गरणा विर्षे कहा है । तैसे ही ज्ञानोपयोग विर्षे प्रमाण जानना । किछू विशेष नाहीं। बहुरि शक्तिगत चक्षुर्दर्शनी, व्यक्तगत चक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्देर्शनी, अवधिदर्शनी केवल दर्शनी, इनिका प्रमाण जैसे दर्शन-मार्गरणा विर्षे कहा है ; तैसे इहां निराकार उपयोग विर्षे प्रमाण जानना । किछू विशेष नाहीं। इति श्री प्राचार्य नेमिचंद्र विरचित गोम्मटसार द्वितीयनाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीवतत्व : प्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नामा भाषाटीका विर्षे जीवकाण्ड विष प्ररूपित बीस प्ररूपरणा तिनि विष उपयोग-मार्गणाप्ररूपणा
नामा बीसवां अधिकार संपूर्ण भया ॥२०॥
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तत्त्वनिर्णय न करने में किसी कर्म का दोष नहीं है, तेरा ही दोष है, परंतु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति संभव नहीं है। तुझे विषय कषाय रूप ही रहना है इसलिए झूठ बोलता है। मोक्ष की सच्ची अभिलाषा हो तो
ऐसी युक्ति किसलिए बनाए ? सांसारिक कार्यों में अपने पुरुषार्थ से सिद्धिन । होती जाने तथापि पुरुषार्थ उद्यम किया करता है, यहाँ पुरुषार्थ खो बैठा है,
इसलिए जानते हैं कि मोक्ष को देखा-देखो उत्कृष्ट कहता है, उसका स्वरूप पहिचान कर उसे हितरूप नहीं जानता। हित जानकर उसका उद्यम बने सो न करे यह असंभव है। .
. - मोशमार्य प्रकाशक अधिकार , पृष्ठ-३११
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