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सम्बन्त्रिक भाषाका ]
अण्णोष्णवयारेण य, जीवा वट्टति पुग्गलाणि पुणो । बेहादी - रिव्वत्तण-कारणभूदा हु नियमेण ॥ ६० ६ ॥
अन्योन्योपकारे व जीवा वर्तन्ते पुद्गलाः पुनः बेहादिनिर्यर्तनकारणभूता हि नियमेन ॥६६॥
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टीका - बहुरि जीव द्रव्य हैं, ते परस्पर उपकार करि प्रवर्ती हैं। जैसे स्वामी तौ चाकर की धनादिक देवें है, श्ररचाकर स्वामी का जैसे हित होइ अरु अहित का निषेध होइ तैसे कर है; सो भैंसें परस्पर उपकार है । बहुरि आचार्य तो शिष्य को इहलोक परलोक विषे फल को देनेहारा उपदेश, क्रिया का आचरण करावना से उपकार करें है । शिष्य उन प्राचार्यनि को अनुकूलवृत्ति करि सेवा कर है । जैसे परस्पर उपकार है; जैसे ही अन्यत्र भी जानना । बहुरि चकार तैं जीव परस्पर अनुपकार, जो बुरा करना, तिसरूप भी प्रवर्ते हैं वा उपकार - श्रनुपकार दीऊ रूप नाहीं प्रवर्ते हैं । बहुरि पुद्गल हैं, सो देहादिक जे कर्म, नोकर्म, वचन, मन, स्वासोस्वास इनिके freeread का नियम करि कारणभूत है । सो ए पुद्गल के उपकार हैं ।
इहाँ प्रश्न - जो जिनिका आकार देखिये से श्रदारिकादि शरीर, तिनिकों पुद्गल कहो, कर्म तो निराकार है। पुद्गलीक नाहीं ।
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तहां उत्तर - जैसे गोधूमादिक, अन्न जलादिक मूर्तीक द्रव्य के संबंध से पच तें गोधूमादिक पुद्गलीक हैं । तेसे कर्म भी लगुड़, कटकादिक मूर्तीक द्रव्य के संबंध तैं उदय अवस्थारूप होई पचे हैं, तातें पुद्गलीक ही हैं ।
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वचन दोय प्रकार है - एक द्रव्यवचन २, एक भाववचन २ । तहाँ भाववचन तौ वीर्या राय, मति, श्रुत प्रावरण का क्षयोपशम पर अंगोपांग नामा नामकर्म का उदय के निमित्त तैं हो है । तातें पुद्गलीक है। पुद्गल के निमित्त बिना भाववचन होता नाहीं । बहुरि भावक्खन की सामर्थ्य को धरे, असा त्रियावान जो श्रात्मा, ताकरि प्रेरित हुवा पुद्गल बचनरूप परिरण हैं, सो द्रव्यवचन कहिए है । सो भी पुद्गलीक ही है, जातै सो द्रव्यवचन कर्ण इंद्रिय का विषय है, जो इन्द्रियनि का विषय है, सो पुद्गल हो है ।
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वहां प्रश्न जो कर बिना अन्य इंद्रियनि का विषय क्यों न होइ ?
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तहां उत्तरी - जो जैसे गंध नासिका ही का विषय है, सो रसनादिक करि ह्या न जाये । तैसे शब्द कर ही का विषय है, अन्य इंद्रियनि करि योग्य नाहीं