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सयाज्ञानन्द्रिका साबाटोका
अहियारो पाहुडयं, एयहो पाहुडस्स अहियारो। याहुडपाहुडगाम, होदि ति जिर्णोह णिहिट्ठ॥३४१॥
अधिकारः प्राभूतमेकार्थः प्राभूतस्याधिकारः ।
प्राभृतप्राभृतनामा, भवति इति जिननिर्दिष्टम् ॥३४१॥ टीका - प्रागें कहियेगा, जो वस्तु नामा श्रुतज्ञान, ताका जो एक अधिकार, 'ताहीका नाम प्राभूतं कहिये । बहुरि जो उस प्राभुतक का एक अधिकार, साका नाम प्राभृतक प्राभृतक कहिये; जिनदेवने कह्या है।
आमैं प्राभृतक का स्वरूप कहैं हैं - दुगवारपाहुडादो, उरि वण्णे कमेण चउवीसे। दुगवारपाहुडे संउड्ढे खलु होदि पाहुडयं ॥३४२॥
द्विकवारप्राभृतादुपरि वर्णे क्रमेण चतुविशतौ।
हिकवारप्रो वृद्धे पर भारति नका ॥४१॥ टोका - द्विकवार प्राभूतक जो प्राभृतक - प्राभृतक, ताके ऊपरि पूर्वोक्त अनुक्रम से एक एक अक्षर की वृद्धि लीयें चौबीस प्राभृतक - प्राभृतकनि की वृद्धि विर्षे एक अक्षर घटाइये, तहां पर्यंत प्राभृतक - प्राभृतक समास के भेद जानने । बहुरि ताका अंत भेद विर्षे एक अक्षर मिलायें; प्राभृतक नामा श्रुतज्ञान हो है। . भावार्थ - एक एक प्राभृतक नामा अधिकार विर्षे चौबीस-चौबीस प्राभृतकप्राभूत्तक नामा अधिकार हो है।
आर्गे बस्तु नामा श्रुतज्ञान की प्ररूप हैं --- वीसं वीसं पाहुड-अहियारे एक्कवत्थुअहियारो। एक्केक्कवण्णउड्ढी, कोण सम्वत्य णायन्वा ॥३४॥२
विशतो विशती प्रामताधिकारे एको वस्त्यधिकारः। .
एकंकवर्णवृद्धिः, क्रमेण सर्वत्र ज्ञातन्या ३४३॥ १. लखंडागम - धवप्ता पुस्तक ६, पृष्ठ २४ की टीका । २, षडागम - नवला पुस्तक ३, पृष्ठ २५ की टीका।