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पायशानचन्द्रिका भाषाटीका ]
। २८३ उवयरणसणेण य, तस्सुवजोगेण भुच्छिदाए य । लोहस्सुवोरणाए परिग्रहे जायदे सण्णा ।। १३८ ॥
उपकरणदर्शनेन च, तस्योपयोगेन भूछिताये छ ।
लोभस्थोदीरणया परिग्रहे जायते संज्ञा ॥ १३८ ॥ टोका - धन-धान्यादिक बाह्म परिग्रहरूप उपकरण सामग्री का देखना पर तीहि धनादिक की कथा का सुनना, यादि करना इत्यादिक उपयोग होना, मूछित जो लोभी, ताक परिग्रह उपजायने विर्षे आसक्तता, ताका इस जीव सहित सम्बन्धी होना इत्यादिक बाह्य कारण हैं। बहुरि लोभ कषाय की उदीरणा, सो अंतरंग कारण है । इनि कारणानि करि परिग्रह संज्ञा हो है । परिग्रह जो धन-धान्यादिक, तिनिके उपजावने प्रादिरूप बांछा, सो परिग्रह संज्ञा जाननी । .
प्रागै ए संशा कौनके पाइए, सो भेद कहै हैं --
गठ्ठपमाए पढ़मा, सण्णा गहि तत्थ कारणाभावा । सेसा कम्मत्थित्तेणुवयारेणस्थि णहि कज्जे ॥१३॥
नष्टप्रमादे प्रथमा, संज्ञा नहि तत्र कारणाभावात् ।
शेषाः कर्मास्तित्वेन उपचारेण संसि नहि कार्ये ॥१३९॥ टोका - नष्ट भये हैं प्रमाद जिनिके, ऐसे जे अप्रमत्तादि गुणस्थानवी जीव, तिनिके प्रथम आहार संज्ञा नाही है । जाते पाहार संज्ञा का कारणभूत जो असाता' वेदनीय की उदीरणा, ताकी व्युच्छित्ति प्रमत्त गुणस्थान ही विर्षे भई है ; ताते कारण के अभाव तें कार्य का भी अभाव है। ऐसे प्रमाद रहित जीवनि के पहिलो संज्ञा नाहीं है । बहुरि इनि के जो अवशेष तीन संज्ञा हैं, सो भी उपचार मात्र हैं; जाते उन संज्ञानि का कारणभूत जे कर्म, तिनि का उदय पाइए है; तीहि अपेक्षा है । बहुरि ते भय, मैथुन, परिग्रह संज्ञा अप्रमादी जीवनि के कार्यरूप नाहीं हैं। . . . इति श्री आचार्य नेमिचंद्रविरचित गोम्मटसार द्वितीय दाम पंचसंग्रह ग्रंथ की जीक्तत्वप्रकीपिका. नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्जामचन्द्रिका नामा भाषा टीका विर्षे जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा, तिनिविष संज्ञा प्ररूपणा नाम पंचम
अधिकार सम्पूर्ण भया ।।५।।