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[ गोम्मटसार ओकाण्ड वाचा ३५६२-६
भावार्थ प्यारि लब्धि तो संसार विषे श्रनेक बार हो हैं । बहुरि करललब्धि की प्राप्ति भएं सम्यक्त्व वा चारित्र अवश्य हो है ।
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आगे उपशमसम्यक् के ग्रहणे को योग्य जो जीव ताका स्वरूप कहै हैंचदुर्गादिभवो सरणी, पज्जत्तो सुभगो य सागारो ! जागा सल्लेस्सो सलद्विगो सम्मुगम ॥ ६५२ ॥
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चतुर्गतिभव्यः संज्ञी पर्याप्तश्च शुद्धकश्च साकारः । जागरूक : सहलेश्यः, सलब्धिकः सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥ ६५२ ॥
टीका - जो जीव च्यारि गति में कोई एक गति विषे प्राप्त जैसा भव्य होइ, सैनी होइ, पर्याप्त होइ, मंदकषायरूप परिणामता विशुद्ध होइ, स्त्यानगृचघादिक तीन निद्रा ते रहित होने तैं जागता होइ, भावित शुभ तीन लेश्यानि विषे कोई एक aar का धारक होइ, करपलब्धिरूप रशिया होश, बैठकीत बत्व को प्राप्त हो है ।
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चत्तारि वि खेत्ताई, श्रउगबंधेरण होइ सम्मत्तं । अणुवदमहम्वदाई, ण लहइ देवाउगं मोत्तुं ॥६५३॥
arati क्षेत्राणि आयुष्कबंधेन भवति सम्यक्त्वम् । अणुव्रत महाव्रतानि न लभते देवायुष्कं सुक्त्वा ॥६५३॥
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टीका च्यारि श्रायु विषै किसी ही परभव का आयु बंध कीया होइ, तिस बद्धा जीव के सम्यक्त्व उपजै, इहां किछु दोष नाहीं । बहुरि अणुव्रत पर महा
जिसके देवायु का बंध भया होइ, तिसहों के होइ । जो पहिलं नारक, तिर्यंच, मनुष्यायु का बंध मिथ्यात्व में भया होइ, तौ पीछे अणुव्रत, महाव्रत होइ नाहीं यह नियम है ।
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en य free पत्तो, सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो । सो सासणी त्ति यो, पंचमभावेण संजुतो ॥६५४॥
न च मिध्यात्वं प्राप्तः सम्यक्त्वतश्च यश्व परिपतितः । स सासन इति ज्ञेयः, पंचमभावेन संयुक्तः ।। ६५४ ॥