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[ मोम्मटसार जीवकाण्ड गामा १६६
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यदिबस्यात्मनो लिगं पदि केंद्रेण कर्मरगा ।
सृष्टं जुष्टं तथा दृष्टं दत्तं चेति तदिद्रियम् ।। याका अर्थ - इन्द्र को है पाल्पा, जामा रिह मोगाद्रित है। अथवा इन्द्र जो कर्म, ताकरि निपज्या वा सेवा वा तैसे देख्या,वा दीया, सो इन्द्रिय है ।
मलविद्धमरिणव्यक्तिर्यथानेकप्रकारतः !
कर्मविद्वात्मविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारतः ।। याका अर्थ - जैसे मल संयुक्त मरिण की व्यक्ति अनेक प्रकार से हो है । जैसे, कर्म संयुक्त आत्मा की जानने रूप क्रिया अनेक प्रकारते होय है-असे इंद्रियः शन्द की निरुक्ति का अनेक प्रकार करि वर्णन कीया। बहुरि तिनि इंद्रियनि विर्षे निर्वत्ति दोय प्रकार -- अभ्यतर, बाह्य ।
तहां जो निज-निज इंद्रियावरण को क्षयोपशमता की विशेषता लीएं प्रात्मा के प्रदेशनि का संस्थान, सो अभ्यंतर-निवृत्ति है।
बहुरि तिस ही क्षेत्र विर्षे जो शरीर के प्रदेशनि का संस्थान, सो बाह्यनिर्वृत्ति है।
बहुरि उपकरण भी दोय प्रकार है -- अभ्यंतर, वाहा ।
तहां इन्द्रिय पर्याप्ति करि आई जो नो-कम वर्गणा. तिनिका स्कंघरूप जो स्पर्शादिविषय ज्ञान की सहकारी होइ, सो तौः अभ्यंतर-उपकरण है। पर ताके प्राश्रयभूत जो चामडी आदि, सों बाह्य-उपकरण है । अंसा विशेष जानना ।
आगे इनि इन्द्रियनि करि संयुक्त जीवनि का कहैं हैं - फासरसगंधरूवे, सद्दे रणारणं च चिण्हयं जेसि । इगिबितिचदुपचिदिय, जीवा णियभेयभिष्मा प्रो ॥१६६॥ स्पर्शरसगंधरूपे, शब्दे ज्ञानं च विलकं येषाम् । एकदित्रिचतुःपंद्रियजीदाः निजभेदभिन्ना ओः ॥१६६५
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१. 'प्रो' इति शिष्धसंबोकनार्थ प्राकृते पम्पयम् । म.प्र.