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सध्याजानचन्द्रिका प्रसाटीका
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मीमांसति यः पूर्व, कामकार्य च तत्त्वमितरच्च ।
शिक्षले नाम्ना एति च, सभनाः श्रमनाश्व विपरीतः ॥६६२॥ टीका - जो पहिल कार्य - अकार्य की विचारे, तत्व - प्रतत्त्व कौं सीखे, नाम करि बुलाया हुवा पावै, सो जीव मन सहित समनस्क, संज्ञी जानना । इस लक्षण ते उलटा लक्षण की जो धरै होइ, सो जीव मन रहित अमनस्क असंज्ञी जानना ।
इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं - ..... देवेहि सादिरेगो, रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणूणो संसारी, सव्वेसिमसण्णिाजीवाणं ॥६६३॥
देवैः सातिरेको, राशिः संजिनां भवति परिमाणम् । .. तेनोनः संसारी सर्वेषामसंशिजीवानाम् ।।६६३॥
टीका - च्यारि प्रकार के देवनि का जो प्रमाण, तिनित किछ अधिक संशी जीवनि का प्रमाण है । संज्ञी जीवनि विर्षे देव बहुत हैं । 'तिनिविर्षे नारक, मनुष्य, पंचेंद्री सैनी तिर्यंच मिलाए संज्ञी जीवनि का प्रमाण हो है । इस प्रमाण कौं संसारी जीवनि का प्रमाण में घटाएं, अवशेष सर्व असंजी जीवनि का प्रमाण हो है । इति प्राचार्य श्रीनेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार द्वितीय माम पंचसंग्रह प्रथ की जीवतत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यम्झान चन्द्रिका राम भाषा टीका
विर्ष जीवकाण्ड विष प्ररूपित जे बीस प्ररूपणा, तिनिविर्षे संज्ञी मार्गणा -
प्ररूपणा नामा अठारहवां अधिकार संपूर्ण मया ॥१८।।
तस्वनिर्णय करने में उपयोग न लगावे यह तो इसी का दोष है। तथा | पुरुषार्थ से तस्वनिर्णय में उपयोग लगादे तब स्वयमेव ही मोह का प्रभाव होने पर सस्यत्वादि रूप मोक्ष के उपाय का पुरुषार्थ बनता है। .
- मोक्षमार्ग प्रकाशक : अध्याय ६, पृष्ठ-३११
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