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अठारहवां अधिकार : संज्ञीमार्गणा
अरि रजविघ्न विनाशकर, अमित चतुष्टय थान । शत इंद्रन करि पूज्य पद, द्यो श्री और भगवान ॥१८॥
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आगे संशी मार्गणा हैं हैं
जोइंदियश्रावरणख श्रोक्समं तज्जबोहणं सपणा । सा जस्स सो दुगी, इदसे सेसि दिअवबोहो ॥ ६६०॥
नोइंद्रियावरण क्षयोपशमस्तज्जबोधनं संज्ञा ।
साथस्य स तु संजी, इतरः शेषेत्रियावनोधः ॥ ६६० ॥
टोका - नो इन्द्रिय जो मत, ताके आवरण का जो क्षयोपशम तीहिकरि
उत्पन्न भयो जो बोधन, ज्ञान, ताकी संज्ञा कहिए । सो संज्ञा जाके पाइए ताकी संशो कहिए है । मन-ज्ञान करि रहित अवशेष यथासंभव इन्द्रियनि का ज्ञान करि संयुक्त जो जीव, सो प्रसज्ञी है ।
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सिक्खा करिव देसालावगाही मनोवलंबरण ।
जो जोवो सो सम्पणी, तव्विवरोश्रो असण्णी दु ॥६६१ ॥
शिक्षायोपदेशालाग्राही मनोवलंबेन ।
यो जीवः स संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी तु ।।६६१॥
टीका - हित-अहित का करने त्यजनेरूप शिक्षा, हाथ-पम का इच्छा करि चलाने श्रादिरूप क्रिया, चामठी ( बेंत ) इत्यादि करि उपदेश्या वधविधानादिक सो उपदेश, श्लोकादिक का पाठ सो आलाप, इनिका ग्रहण करणारा जो मन ताका अवलंबन करि क्रम तें मनुष्य वा बलध वा हाथी वा सूवा इत्यादि जीव, सो संज्ञी नाम हैं । बहुरि इस लक्षण ते उलटा लक्षण का जो जीव, सो प्रसंज्ञी नाम
जानगा ।
मोमंसदि जो पुवं, कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च ।
farala णामेणेदि य, समणो श्रमणो य विवरीदो ||६६२ ॥