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स्थानाभावाटीका ]
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टीका बहुरि बंध द्रव्य भी समयप्रबद्ध प्रमाण है; जातें एक समय विषै स्याबळ माण काही का बंध हो हैं । बहुरि मोक्ष द्रव्य किंचिदून द्वगुणहानि करि गुणित समयप्रवेद्ध प्रमाण है; जाते प्रयोगी के चरम समय विषै गुहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण संता पाइए । तिस ही का मोक्ष हो है; इस प्रकार तत्वार्थ हैं, ते श्रद्धान करणे, इस तस्वार्थ श्रद्धान ही का नाम सम्यक्त्व है ।
श्रा सम्यक्त्व के भेद कहें है
खोणे दंसणमोहे, जं सद्दहणं सुणिम्मल होई । खाइय-सम्मत्त, णिच्च कम्म क्खवण हेतु ॥ ६४६ ॥
क्षीणे दर्शनमोहे, वडानं सुनिर्मल भवति । ताकिसम्यक्त्वं नित्ये कर्मक्षपसहेतुः ||६४६॥
टीक - मिथ्यात्व मोहनी, सम्यग्मिथ्यात्व मोहनी, सम्यक् मोहनी पर अनंताबंधी की चौकड़ी इन सात प्रकृतिनि का करणलब्धिरूप परिणामनि का बल से नाश होत संत जो अति निर्मल श्रद्धान होइ, सो क्षायिक सम्यक्त्व है । सो प्रतिपक्षी कर्म का नाश करि आत्मा का गुण प्रगट भया है; तातें नित्य है । बहुरि समय समय प्रति गुणश्रेणी निर्जरा कौं कारण है; तातें कर्मक्षय का हेतु है ।
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उक्तं च
deerat are forभदि एक्केय तबियतुरियभवे । रंगादि तुरियभवं रग विस्सदि सेस सम्मं च ॥
दर्शन मोह का क्षय होते, तीहि भव विषे वा देवायु का बंघ भए तीसरा भव विषे वा पहिले मिथ्यावदशा विषे मनुष्य तिर्यंच प्रायु का बंध भया होइ तो चौथा भव व सिद्ध पद को प्राप्त होइ, चौथा भव को उलंबे नाहीं । बहुरि अन्य सम्यक्त्ववत् यह क्षायिक सम्यक्त्व विनशे भी नाहीं ; तोहिस्यों नित्य का है । सादि अक्षयानंत है | आदि सहित अविनाशी अंत रहित है; यह अर्थ जानना ।
1. पटखण्डागम चबला पुस्तक-१, पृष्ठ ३६७, याचा सं. २१३ ।