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सम्पज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका ।
1 १७६ प्रागै श्री माधवचन्द्र विद्यदेव ते 'अष्टविधकर्मविकलाः' इत्यादि सात विशेपनि का प्रयोजन दिखावै हैं -
सदसिवसंखो मक्कडि, बुद्धो रणैयाइयो य वेसेसी। ईसरमंडलिदसण, विदूसणळं कयं एवं ॥ ६६ ॥ सदाशियः सांस्यः मस्करी, बुद्धो नैयायिकश्म वैशेषिकः ।
ईश्वरमंडलिदर्शनविदूषणार्थ कृतमेतत् ।। ३९ ।। टीका - सदाशिवमत, सांख्यमत, मस्करी सन्यासी मत, बौद्धमत, नयायिक मत, वैशेषिकमत, ईश्वरमत, मंडलिमत ए जु दर्शन कहिए मत, तिनके दूषने के अथि ए पूर्वोक्त विशेषण कीए हैं । उक्त च ~
सदाशिवः सदाकर्म, सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितम् । मस्करी किल मुक्तानां, मन्यते पुनरागतिम् ।। क्षणिक निर्गुणं चैक, बुद्धो योगश्च मन्यते ।
कृतकृत्यं समीशानो, मंडली चोर्ध्वगामिनम् ।। इनिके अर्थ - सदाशिव मतवाला सदा कर्म रहित मान है। सांस्य मतवाला मुक्त जीव कौं सुख रहित मान है। मस्करी सन्यासी, सो मुक्त जीव के संसार विर्षे बहुरि अावना माने है । बहुरि बौद्ध पर योंग मतवाले क्षणिक पर निर्गुण आत्मा कौं मान हैं । बहुरि ईशान जो सृष्टिवादी, सो ईश्वर कौं अकृतकृत्य मान हैं । बहुरि मांडलिक आत्मा कौं ऊर्ध्वगमन रूप ही माने हैं । भैसें माननेवाले मतनि का पूर्वोक्त विशेषण से निराकरण करि यथार्थ सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप निरूपण कीया। ले सिद्ध भगवान प्रानन्दकर्ता होहु । इति श्रीप्राचार्य नेमिचंद्र विरचित मोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ की जीव तत्त्वप्रदीपिका नाम संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचंद्रिका नाम भाषा टीका के विष जीव कांडविर्षे कहीं जे वीस प्ररूणा तिन विर्षे गुणस्थान प्ररूपरखा है नाम जाका असा प्रथम अधिकार संपूर्ण भया ।।१॥