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सभ्यशानचन्द्रिका माघाटीमा 1
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रूप अकारादि स्वर अर' ककारादिक व्यंजन पर संयोगी. अक्षर, सो निर्वृत्ति अक्षर कहिये । बहुरि पुस्तकादि विर्षे निज देश की प्रवृत्ति के अनुसारि अकारादिकनि का आकार करि लिखिए सो स्थापना अक्षर कहिये । इस प्रकार जो एक अक्षर, ताके सुनने ते भया जो अर्थ का ज्ञान, हो अक्षर श्रुतज्ञान है; असा जिनदेवने कहा है । उन ही के अनुसारि मैं भी कुछ कहा है।
प्राग श्री माधवचंद्र वैविधदेव शास्त्र के विषय का प्रमाण कहैं हैं - पण्णवरिणज्जा भावा, अणंतभागो बु अणभिलप्पारणं । पण्णवणिज्जारणं पुण, अणंतभागो सुदरिणबद्धो ॥३३४॥
प्रज्ञापनीया भावा, अनसभागस्तु अनभिलाप्यानाम् ।
प्रज्ञापनीयानां पुनः, अनंतभागः श्रुतनिबद्धः ॥३३४॥ टीका - अनभिलाप्यानां कहिए वचन गोचर नाही, केवलज्ञान ही के मोचर जे भाव कहिए जीवादिक पदार्थ, तिनके अनंतवें भागमात्र जीवादिक अर्थ, ते प्रज्ञापबीमाः कहिए सीवर की सातिशय दिव्यध्वनि करि कहने में आवें असें हैं । बहुरि तीर्थंकर की दिव्यध्वनि करि पदार्थ कहने में आवे हैं तिनके अनंतवें भागमात्र द्वादशांग श्रुतविर्षे व्याख्यान कीजिए है । जो श्रुतफेवली कौं भी गोचर नाहीं; असा पदार्थ कहने की शक्ति दिव्यध्वनि विर्षे पाइए है । बहुरि जो दिव्यध्वनि करि न कहा जाय, तिस अर्थ की जानने की शक्ति केवलज्ञान विर्षे पाइए है । असा जानना।
आगें दोय गाथानि करि प्रक्षर समास को प्ररूपें हैं -- एयक्खराखु उवरिं, एगगेणक्खरेण बड्ढतो। संखेज्जे खलु उड्ढे, पदणाम होदि सुदणाणं ॥३३५॥ १
एकाक्षरात्तुपरि, एकैकेनाक्षरेण बर्धमानाः ।
संख्येये खलु वृद्धे, पदनाम भवति श्रुतज्ञानम् ॥३३५॥ टीका - एक अक्षर ते उपज्या जो ज्ञान, ताके ऊपरि पूर्वोक्त षट्स्थानपतित वृद्धि का अनुक्रम विना. एक एक अक्षर बधता सो दोय अक्षर, तीन अक्षर; च्यारि अक्षर इत्यादिक एक घाटि पद का प्रक्षर पर्यंत अक्षर समुदाय का सुनने करि उपजें असे प्रक्षर समास के भेद संख्यात जानने । ते दोय पाटि पद के अक्षर जेते होइ
१.-पखंडायम-पवला, पुस्तक ६, पृष्ठ २२ की टीका।