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I deer का गाया ३६६
air; सो आत्मसंस्कार सल्लेखना उत्तम अर्थ स्थान की प्राप्त उत्तम प्राराधना, after faशेष प्ररूपए है ।
बहुरि पुंडरीक नामा प्रकीर्णक भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी, कल्पवासी इनि विष उपजने को कारण अंसा दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यक्त्व, संयम इत्यादि विधान प्ररूपिये है। वा तहां उपजने हैं जो विभवादि पाइए, सो प्ररूपिये है।
बहुत महान जोक, सो महामुंडरीक नामा प्रकीर्णक है । सो महाधिक जे इंद्र, प्रतींद्र, श्रहमिंद्रादिक, तिनविषै उपजने कौं कारण असे विशेष तश्चरणादि, विनिकों रूप है ।
बहुरि निषेधनं कहिए प्रसाद करि कीया दोष का निराकरण; सो निषिद्ध कहिए संज्ञा विषेक प्रत्ययकरि निषिद्धिका नाम भया, सो असा निषिद्धका नाम प्रकीर्णक प्रायश्चित शास्त्र है । इस विषै प्रमादतें कीया दोष का विशुद्धता के निमित्त अनेक प्रकार प्रायश्चित्त प्ररूपिए हैं । याका निसतिका असा भी नाम है ।
जैसे अंगबाह्य श्रुतज्ञान चौदह प्रकार का याके अक्षरनि का प्रमाण पूर्व का ही है ।
श्रुतज्ञान की महिमा कहै हैं
सुदकेवलं च णाणं, दोणि वि सरिसाणि होति बोहादो । सुदणाणं तु परोक्ख, पञ्चक्खं केवलं गाणं ॥ ३६६॥
श्रुतकेवलं च ज्ञान, द्वे अपि सो भवतो बोधात् । श्रुतज्ञानं तु परोक्षं, प्रत्यक्षं केवलं ज्ञानं ॥ ३६९ ॥ ॥
टीका - श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोऊ समस्त वस्तुनि के द्रव्य, गुरण, पर्याय जामने की अपेक्षा समान हैं । इतना विशेष श्रुतज्ञान परोक्ष है; केवलज्ञान
प्रत्यक्ष है ।
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भावार्थ जैसे केवलज्ञान का श्रपरिमित विषय है; तैसें श्रुतज्ञान का अप रिमित विषय है । शास्त्र ते सबैनि का जानने की शक्ति है; परि श्रुतज्ञान सर्वोत्कृष्ट