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सन्याशानन्द्रका भाषाटीका ] .
धम्माधम्मादीणं, अगरुगलहूगं तु छहिं वि वड्ढोहिं। हाणीहि वि बड्ढंतो, हायंतो वट्टदे जम्हा ॥५६॥
धर्म धर्मादीनामगुरुकलधुकं तु षभिरपि वृद्धिभिः ।
हानिभिरपि वर्धमानं हीयमानं वर्तते यस्मात् ।।५६९॥ टोका-जाते धर्म अधर्मादिक द्रव्यनि के अपने द्रव्यत्व कौं कारणभूत शक्ति के विशेष रूप जे अगुरुलघु नामा गुण के अविभाग अतिच्छेद, ते अनंत भागवृद्धि प्रादि षट्स्थान पतित वृद्धि करि तौ बधे हैं । पर अनंतभागहानि आदि षट्स्थान पतित हानि करि घटें हैं, तातें तहां असें परिणमन विर्षे भी मुख्य काल ही कौं कारण जानना। ''
ण य परिणमदि सयं सो, पाय परिणामेइ अण्णमण्णेहि । विविहपरिणामिया, हवावि हु कालो सयं हेदू ॥५७०॥ ।
न च परिणमति स्वयं स, न च परिणमयति अन्यवन्यैः ।
विविधपरिणामिकामां, भवति हि कालः स्वयं हेतुः ।।५७०॥ टीका - सो कालसंक्रम जो पलटना, ताका विधान करि अपने गुरणनि करि परद्रव्यरूप होइ नाहीं परिणवै है । बहुरि परद्रव्य के गुणनि कौं अपने विर्षे नाहीं परिमाय है । बहुरि हेतुकर्ता प्रेरक होइकरि भी अन्य द्रव्य कौं अन्य गुणनि करि सहित नाहीं परिणमा है । तो नानाप्रकार परिणमनि वौं पर जे द्रव्य स्वयमेव परिणमें है, तिनकौं उदासीन सहज निमित्त मात्र हो है। जैसे मनुष्य के प्रभात संबंधी क्रिया को प्रभातकाल कारण है। क्रियारूप तौ स्वमेव मनुष्य ही प्रवर्ते हैं, परन्तु तिनिको निमित्त मात्र प्रभात का काल. हो है, तैसें जानना ।
कालं अस्सिय बब्वं, सगसगपज्जायपरिणद होदि । प्रज्जायावाणं, सुद्धगयो होदि खणमत्तं ॥५७१॥
कालमाश्रित्य द्रव्यं, स्वकस्वकपर्यायपरिणतं भवति ।
पर्यायावस्थानं, शुद्धनयेन भवति क्षणमात्रम् ॥५७१॥ । टीका - काल का निमित्तरूप आश्रय पाइ, जीवादिक सर्व द्रव्य स्वकीय स्वकीय पर्यायरूप परिणए हैं। तिस पर्याय का जो अवस्थान, जो रहने का काल,सो ऋजुसूत्रनय करि अर्थ पर्याय अपेक्षा एक समय मात्र जानना।