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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ५४६-५४७
गुण्या हुवा जगत्तर प्रमाण भया, सोई विहारवत्स्वस्थान विषै स्पर्श जानना । जाते कृष्णलेश्या वाले गमन क्रिया युक्त त्रस जीव तिर्यग् लोके ही विषै पाइए हैं ।
बहुरि वैयिक समुद्घात विषै मेरुगिरि के मूल तें लगाइ, सहस्रार नामा स्वर्ग पर्यंत ऊंचा साली प्रमाण' लंबा चौडा क्षेत्र विषै पवन कायरूप पुद्गल सर्वत्र आच्छादित रूप भरि रहे हैं । बहुरि पवन कायिक जीवक के विक्रिया पाइए है, सो
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ती काल अपेक्षा तहां सर्वत्र विक्रिया का सद्भाव है। अंसा कोऊ क्षेत्र तिस विषै रह्या नाहीं, जहां विक्रिया रूप न प्रवर्ते तातें एक राजू लंबा वा चोडा और पांच राजू ऊचा क्षेत्र भया ताका क्षेत्रफल लोक के संख्यातवें भाग प्रमाण भया, सोई वैकि यकं समुद्धात विषे स्पर्श जानना ।
बहरि तैजस पर श्राहारक अर केवल समुद्घात इस लेश्या विषै होता हो नाहीं । इहां भी पंच प्रकार लोक का स्थापन करि, यथासंभव गुरणकार भागहार. जानना । बहुरि जैसे कृष्णलेण्यानि विषं कथन कीया, तैसे ही नीललेश्या कपोत लेश्या विषे भी. कथन जानना
तेजोलेश्या विषै कहे हैं-
तेस्स य सट्ठाणे, लोगस्स श्रसंखभागमेत्तं तु । अडचो सभागा वा, देसूणा होंति नियमेण ।। ५४६॥
तेजसच स्वस्थाने, लोकस्य असंख्यभागमात्रं तु ।
अष्ट चतुर्दशभागा वा देशोना भयंति नियमेन ॥ ५४६ ॥
टीका
तेजोलेश्या का स्वस्थान विषै स्पर्श स्वस्थान स्वस्थान अपेक्षा तौ लोक का असंख्यातवां भागमात्र जानना । बहुरि बिहारवत्स्वस्थान अपेक्षा त्रसनाली: के चौदह भागनि विषै आठ भाग किछू घाटि प्रमाण स्पर्श जानना ।
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एवं तु समुग्धावे, व चोहसभागयं च किंचूण | वादे पढमपदं दिवडचोट्स य किचूर्ण ॥५४७॥
एवं तु समुद्घाते, नवचतुर्दशभागश्च किचिदूनः । उपपादे प्रथमपदं व्यर्धचतुर्दश च किचिनम् ॥५४७॥