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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नाटीका
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तैं रहित हैं । बहुरि 'असाधनीया: ' कहिए प्रमाण करने योग्य नाहीं । याही तैं संत पुरुषft की आदरने योग्य नाहीं । भैंसे शास्त्राभ्यासनि ते भया जो श्रुतज्ञान की सी प्रभासा लीएं कुज्ञान, सो श्रुत अज्ञान कहिए । जातै प्रमाणीक इष्ट अर्थ तें विपरीत अयाका विषय हो है । इहां मति, श्रुत ज्ञान का वर्णन उपदेश लीएं किया है । र सामान्य तौ स्व-पर भेदविज्ञान रहित इंद्रिय, मन जनित जानना, सो सर्व कुमति, कुश्रुत है ।
faatयमोहिणारण, खत्रोवसमियं च कम्सबीजं च । वेभंगो ति पउच्चs, समत्तणाणीण समयम्हि ॥ ३०५ ॥ १ विपरीतमवधिज्ञानं, क्षायोपशमिकं च कर्मवीजं च ।
विभंग इति प्रषयले समाप्तज्ञानिनां समये ॥ ३०५ ॥
जाका,
टीका - मिथ्यादृष्टी जीवनि के अवधिज्ञानावरण, वीतराय के क्षयोपशम तें उत्पन्न भया; जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लीएं रूपी पदार्थ है विषय असा प्राप्त, श्रागम, पदार्थनि विषे विपरीत का ग्राहक, सो विभंग नाम पा है । fव कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान, ताका भंग कहिए विपरीत भाव, सो विभंग कहिए; सो तिर्यंच - मनुष्य गति विषै तौ तीव्र कायक्लेशरूप द्रव्य संयमादिक करि उपजे है; सो गुणप्रत्यय हो है ।
बहुरि देवनरकगति विषै भवप्रत्यय हो है । सो सब ही विभंगज्ञान मिथ्यात्यादि कर्मबंध का बीज कहिए कारण है । चकार ते कदाचित् नरकादिक गति विषै 'पूर्वभव सम्बन्धी दुराचार के दुःख फल को जानि, कहीं सम्यग्दर्शनज्ञानरूप धर्म . का भी बीज हो है; असा विभंगज्ञान, समाप्तज्ञानी जो संपूर्ण ज्ञानी केवली, तिनिके मत विषै का है ।
में स्वरूप वा उपजने का कारण वा भेद वा विषय, इनिका प्राश्रय करि मतिज्ञान का निरूपण नव गाथानि करि कहैं हैं
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अहिमुह - नियमिय-बोहणमाभिणिबोहियमणिदि इंदियजं । अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥३०६॥२
१. पट्ागम - धवला पुस्तक १, गाथा १८१, पृष्ठ ३६१ ।
२. पट्ागम - धवला पुस्तक १ गाथा १८२, पृष्ठ ३६१ । ३. पाठभेद - बहु श्रोग्हाईसा सलुरु दतीस लि-सय-भेयं ।