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सम्पाज्ञानमन्द्रिका भाषाटोका
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टोका
एक द्रव्य विषे जे गुणनि के परिणमनरूप षट्स्थानपतित वृद्धिहानि लीए अर्थ पर्याय बहुरि द्रव्य के आकारादि परिणमनरूप व्यंजन पर्याय, ते अतीत श्रनागत श्रपि शब्द ते वर्तमान संबंधी यावन्मात्र हैं। तावन्मात्र द्रव्य जानना । जाते द्रव्य तिनतें जुदा है नाहीं ; सर्व पर्यायनि का समूह सोई द्रव्य है । इति स्थित्य धिकारः ।
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यागासं वज्जित्ता, सव्वे लोगम्मि चेव णत्थि बहिं । वावी धम्माधम्मा, वट्ठिदा प्रचलिदा णिच्चा ॥ ५८३ ॥
आकाशं वर्जयित्वा सर्वाणि लोके चैव न संति बहिः ।
arrfeat anant ग्रवस्थितावचलितौ नित्य ॥१५८३||
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टीका अब क्षेत्र कहै है; सो आकाश बिना अवशेष सर्वद्रव्य लोक विषै ही हैं, बाह्य लोक विषं नाहीं हैं । तिन विषे धर्म द्रव्य, धर्मद्रव्य तिल विषै तेल की ज्यों सर्व लोक विषं व्याप्त है। तातें व्यापी कहिए । बहुरि निजस्थान तें स्थानांतर विषे चले नाहीं है; तातें अवस्थित हैं । बहुरि एक स्थान विषे भी प्रदेशनि का चंचलपना, तिनके नाहीं है; ताते श्रचलित हैं । बहुरि त्रिकाल विषे विनाश नाहीं है; ता नित्य है । स धर्म, अधर्म द्रव्य जानते । इहां प्रासंगिक श्लोक ---
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श्रपश्लेषिक कार्यभिव्यापक इत्यपि । आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः, कटाकाशतिलेषु च ॥
आधार तीन प्रकार हैं - श्रपश्लेषिक, वैषयिक, श्रभिव्यापक । तहां चटाई विषे कुमार सो है, जैसा कहिए, तहां श्रपश्लेषिक आधार जानना | बहुरि ग्राकाश विषे घटादिक द्रव्य तिष्ठे हैं, जैसा कहिए। तहां वैषयिक प्राधार जानना | बहुरि तिल विषै तेल है, जैसा कहिए; तहां अभिव्यापक आधार जानना । सो इहां तिलनि विषै तेल की ज्यों लोकाकाश के सर्व प्रदेशनि विषे धर्म, अधर्म द्रव्य अपने प्रदेशनि करि व्याप्त हैं । ताते इहां अभिव्यापक आधार है । याहीं तें प्राचार्यने धर्म अधर्म द्रव्य कौं व्यापी कहा है ।
लोगस्स असंखेज्जविभागप्पहृदि तु सव्वलोगो हि । अप्पपसविप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥ ५८४ ॥