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मटसार जीवकाण्ड माया ५८५
लोकस्यासंख्येयभागप्रतिस्तु सर्वलोक इति ।
प्रात्मप्रदेशविसर्परपसंहारे व्यापृतो जीयः ॥५८४॥ - टीका - जीव का क्षेत्र कहै हैं, सो शरीरमात्र अपेक्षा लो सूक्ष्म निगोदिया लब्धि अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना तै लगाइ, एक एक प्रदेश बधता उत्कृष्ट महामत्स्य को अवगाहना पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके परि समुद्धात अपेक्षा वेदना समुद्घातवाले का एक एक प्रदेश क्षेत्र विर्षे बघता बघता महामत्स्य की अवगाहना ते तिगुरणा लंबा, चौड़ा क्षेत्र पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपर एक एक प्रदेश बधता बधता मारणांतिक समुद्घातबाले का स्वयंभू रमण समुद्र का बाह्य स्थंडिल क्षेत्र विर्षे तिष्ठता जो महामत्स्य, सो सप्तमनरक विषं महारौरव नामा श्रेणीबद्ध बिला प्रति कीया जो मारणांतिक समुद्यात तीहिं विर्षे पांच से योजन चौडा, अढाई से योजन ऊंचा, प्रथम वक्रगति विष एक राजू, द्वितीय वक्र विर्षे प्राधा राजू, तृतीय वक्र विर्षे छह राज, लंबाई लीएं जो उत्कृष्ट क्षेत्र हो है; तहां पर्यंत क्षेत्र जानना । बहुरि ताके ऊपरि केवलिसमुद्धात विर्षे लोकपूरण पर्यत क्षेत्र जानना । सो असे सर्व भेदरूप क्षेत्र विर्षे प्राने प्रदेशनि का विस्तार - संकोच होते जीवद्रव्य व्यावृतं कहिए व्यापक हो है । संकोच होतें स्तोक क्षेत्र विर्षे आत्मा के प्रदेश अवगाहरूप तिष्ठं हैं। विस्तार होते ते फैलिकरि घने क्षेत्र विर्षे तिष्ठे हैं। जात जीव के अवगाहना का भेद का उपपाद वा समुद्धात भेद सर्व ही संभव है । तातै पूर्वोक्त जीव का क्षेत्र जानना ।
पोग्गलदवारणं पुण, एयपदेसादि होंति भजणिज्जा। एक्कक्को दु पदेसो, कालापूर्ण धुदो होदि ॥५८५॥
पुद्गलद्रव्यारणां पुनरेकप्रदेशादयो भवन्ति भजनीयाः ।
एकैकस्तु प्रदेशः, कालाणूनां ध्रुवो भवति ।।५८५॥ टोका - पुद्गलद्रव्यनि का एक प्रदेशादिक यथासंभव भजनीय कहिए भेद करने योग्य क्षेत्र जानना, सो कहिए हैं - दोय अणू का स्कंध एक प्रदेश विष तिष्ठ वा दोय प्रदेशनि विर्षे तिष्ठ, बहुरि तीन परमाणूनि का स्कंध एक प्रदेश का दोय प्रदेश वा तीन प्रदेश विर्ष तिष्ठ, असे जानना । बहुरि कालाणू एक एक लोकाकाश का प्रदेश विष एक एक पाइए है, सो ध्र वरूप है, भिन्न भिन्न सत्त्व धरै है; तातै तिनिका क्षेत्र एक एक प्रदेशी है
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