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একলঙ্কিা মায়াখা ? बहुरि औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर नामा नामकर्म के उदय करि आहार वर्गणारूप पाए जे पुद्गल एकंध, नितिका दिए नामा दागकर्म के उदय करि निपज्या जो शरीर, ताके परिणामन के निमित्त ते जीव का प्रदेशनि का जो चंचल होना, सो औदारिक आदि काय योग हैं। बहुरि शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होइ तावत् एक समय घाटि अंतर्मुहर्त पर्यंत, तिनके मिश्र योग है। इहां मिश्रपना कहा है, सो औदारिकादिक नोकर्म की वर्गरणानि का आहरण आप ही ते न हो है, कार्माण वर्गणाः का सापेक्ष लीए है; तातें कहा है । बहुरि .. विग्रह गति विर्षे औदारिकादिक नोकर्म : की वर्गणानि का तौ ग्रहण है नाही, कामणि शरीर नामा नामकर्म का उदय करि. कार्मारा वर्गणारूप आए जे पुद्गल स्कंध, तिनिका ज्ञानावरणादिक कर्म पर्याय करि जीद के प्रदेशनि विर्षे बंध होते भया जो जीव के प्रदेशनि का चंचलपना, सो कारण काययोग है । जैसै ए पंद्रह योग हैं। ...
:::: तिसु तेरं दस मिस्से, सत्तसु णव छठ्ठयम्मि एगारा। :. । . जोगिम्मि सत्त जोगा, अजोगिठारणं हवे सुण्णं ॥७०४॥
त्रिषु त्रयोदश दश मिश्र, सप्तसु नव षष्ठे एकादश। ... ....
योगिनि सप्त योगा, अयोगिस्थानं भवेत् शून्यम् ॥७०४॥ ...टीका - कहे पंद्रह योग, तिनि विर्षे मिथ्यादृष्टी, सासादन, असंयत इन तीनों विर्षे तेरह तेरह योग हैं, जानै घाहारक, आहारकंमिश्र, प्रमत्त बिंना अत्यंत्र नाहीं हैं। बहुरि मिश्र विष प्रौदारिक मिश्र, वैऋियिकमिश्न, कार्माण ए तीनों भी नाही; ताते दश ही हैं । बहुरि ऊपरि सात गुणस्थानकनि विर्षे वैक्रियिक योग भी नाहीं है; तात प्रमत्त विर्षे तो आहारकद्विक के मिलने ते ग्यारह योग हैं, औरनि विर्ष नव नव योग हैं । बहुरि सयोगी विर्षे सत्य-अनुभय मनोयोग, सत्य-अनुभय वचनयोग, औदारिक,
औदारिकमिश्र, कार्माण ए सात योग हैं । अयोगी गुरणस्थान विर्षे योग नाहीं तातें . शून्य है । बहुरि स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदनि करि उदय करि वेद हो है, ते तीनों .. अनिवृत्तिकरण के सयेदभाग पर्यत हैं: अपरि नाहीं ।
___ बहुरि क्रोधादिक व्यारि कषायनि का यथायोग्य अनंतानुबंधी इत्यादि रूप उदय होत संतै क्रोध, मान, माया, लोभ हो हैं। तहां मिथ्यादृष्टी सासादन विर्षे तौं अनंतानुबंधी आदि च्यारि च्यारि प्रकार है । 'मिन असंयत विर्षे अनंतानुबंधी बिना'
नाग------