________________
सम्पन्हानतिका भावाटीका ]
[ ५७ वण्णोदयेण जणिदो, सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । सा सोढा किण्हादी, अणेयभेया सभेयेण ॥४६४॥
वर्णोदयेन जनितः, शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या ।
सा षोढा कृष्णादिः, अनेकभेदा स्वभेदेन ।।४६४।। टीका - बहुरि वर्ण नामा नामकर्म के उदय ते भया जो शरीर का वर्ण, सो द्रव्य लेश्या कहिए । सो कृष्णादिक छह प्रकार है । तहां एक - एक भेद अपने - अपने भेदनि करि अनेकरूप जानने ।
सोई कहिए हैंछप्पय-णील-कवोद-सुहेमंबुज-संखसण्णिहा वण्णे । संखेज्जासंखेज्जाणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥४६॥
षट्पदमोलकपोतसुहेमाम्बुजशंखसन्निभा वर्णे ।
संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पाच प्रत्येकम् ॥४९५॥ टीका - कृष्ण लेश्या षट्पद जो भ्रमर, ताके समान है। जिसके शरीर का भ्रमर समान काला वर्ण होइ, ताके द्रव्य लेश्या कृष्ण जानना । अंसें ही नील लेश्या, नीलमणि समान है। कपोत लेश्या, कपोत समान है। तेजो लेश्या, सुवर्ण समान है । पद्म लेश्या, कमल समान है। शुक्ल लेश्या शंख समान है। बहुरि इन ही एक - एक लेश्यानि के नेत्र इद्रिय के मोचर अपेक्षा संख्याते भेद हैं । जैसे कृष्णवर्ण हीन • अधिक रूप संख्याते भेद की लीए नेत्र इद्रिय करि देखिये हैं । बहुरि स्कंध भेद करि एक - एक के असंख्यात असंख्याते भेद हैं । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर संबंधी स्कंध असंख्याते हैं । बहुरि परमाणू भेद करि एक - एक के अनन्त भेद हैं । जैसे द्रव्य कृष्ण लेश्यावाले शरीर सम्बन्धी स्कंधनि विर्षे अनंते परमाणु पाईए . है । असे सर्व लेश्यानि के भेद जानना ।
णिरया किण्हा कप्पा, भावाणुगया हू ति-सुर-गर-तिरिये । उत्तरदेहे छक्क, भोगे रवि-चंद-हरिदंगा ॥४६६ ॥
निरयाः कृष्णाः कल्पा, भावानुगता हि त्रिसुरनरतिरश्चि । उत्तरदेहे षट्क, भोगे रविचन्द्रहरितांगाः ॥४६६॥
--