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[ गोम्मटसार जीवका गया १३
तहां जीवादि दस्तु सर्वथा सत्वरूप ही है, सर्वथा सत्त्वरूप ही है, सर्वथा एक ही है, सर्वथा अनेक ही है - इत्यादि प्रतिपक्षी दूसरा भाव की अपेक्षारहित एकतिरूप अभिप्राय, सो एकांत मिथ्यात्व है ।
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बहुरि अहिंसादिक समीचीन धर्म का फल जो स्वर्गादिक सुख, ताक हिंसादिरूप यज्ञादिक का फल कल्पना करि मानें या जीव के प्रमाण करि सिद्ध है जो मोक्ष, ताका निराकरा करि मोक्ष का प्रभाव माने; वा प्रमाण करि खंडित जो स्त्री के मोक्षप्राप्ति, ताका अस्तित्व वचन कर स्त्री को मोदा है जैसा मानें इत्यादि एकांत लंबन कर विपरीतरूप जो अभिनिवेश- अभिप्राय, सो विपरीत मिथ्यात्व है ।
बहुरि सम्यग्दर्शन-शान चारित्र की सापेक्षा रहितपनें करि गुरुचरणपूजनादिरूप विनय ही करि मुक्ति है - यहु श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है ।
बहुरि प्रत्यक्षादि प्रमाण करि ग्रह्मा जो अर्थ, ताका देशांतर विषै भर कालांतर विषै व्यभिचार जो अन्यथाभाव, सो संभव है । तातैं अनेक मत अपेक्षा परस्पर विरोधी जो आप्तवचन, ताका भी प्रमाणता की प्राप्ति नाहीं । तातें असें ही तत्व है, जैसा निर्णय करने की शक्ति के प्रभाव तें सर्वत्र संशय ही है, जैसा जो अभिप्राय, सो संशय मिथ्यात्व है ।
बहुरि ज्ञानावरण दर्शनावरण का तीव्र उदय करि संयुक्त से एकेंद्रियादिक ate, तिनके अनेकांत स्वरूप वस्तु है, भैसा वस्तु का सामान्य भाव विषे श्रर उपयोग लक्षण जीव है औसा वस्तु का विशेष भाव विषं जो अज्ञान, ताकरि निपज्या जो श्रद्धान, सो ज्ञान मिध्यात्व है ।
असे स्थूल भेदनि का श्राश्रय करि मिध्यात्व का पंचप्रकारमना कथा, जातें सूक्ष्म भेदनि का आश्रय करि असंख्यात लोकमात्र भेद संभव हैं । तातें तहां व्याख्यानादिक व्यवहार की प्राप्ति है ।
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इन पंनि का उदाहरण कीं कहै हैं -
एयंत बुद्धदरसी, विवरीओ बह्म तावसो विरणओ । sat far संसइयो, मक्कडिओ थेव अण्णाणी ॥ १६ ॥
एकांतो बुद्धदर्शी, विपरीतो ब्रह्म तापसो विनयः । इंद्राऽपि च संशयितो, मस्करी चैवाज्ञानी ॥ १६ ॥