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मटसार जीकाण्ड गाथा ७०१७०२
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तिर्यग्गतौ चतुर्दश, भदंति शेषेषु जानीहि द्वौ द्वौ तु ।
मार्गणास्थानस्यैवं, ज्ञेयानि समासस्थानानि ॥७००। ' टीका - तिर्यंचगति विर्षे जीवसमास चौदह हैं । अवशेष गतिनि विर्षे संशी पर्याप्त वा अपर्याप्त ए दोय दोय जीवसमास जानने । असे मार्गणास्थानकनि विर्षे यथायोग्य पूर्वोक्त अनुक्रम करि जीवसमास जानने । ...
प्रागै गुणस्थाननि विर्षे पर्याप्ति वा प्रारण कहैं हैंपज्जत्ती पाणा वि य, सुगमा भाविदियं ण जोगिम्हि । तहिं वाधुस्सासाउगकायत्तिगद्गमजोगिणो प्राऊ ॥७०१॥
. पर्याप्तयः प्रारणा अपि च, सुगमा भायेंद्रियं न योगिनि । : सस्मिन् वागुच्छ्वासायुष्ककायत्रिकतिकमयोगिन प्रायुः ॥७०१॥
टीका - चौदह गुणस्थाननि विर्षे पर्याप्ति अर प्राण जुदे न कहिए है; जातें सुगम है । तहां क्षीणकषाय पर्यंत तो छहाँ पर्याप्ति हैं, दशौ प्राण हैं । बहुरि सयोगी जिन विर्षे भावेंद्रिय तो है नाही, द्रव्येन्द्रिय की अपेक्षा छह पर्याप्ति हैं। बहुरि सयोगी के प्राण च्यारि हैं - १ वचनबल, २ सासोस्वास, ३ आयु, ४ कायबल ए च्यारि हैं। अवशेष पंचेंद्रिय पर मन ए छह प्राण नाहीं हैं ! तहां वचनबल का अभाव होते तीन ही प्राण रहैं हैं । उस्वास निश्वास का प्रभाव होते दोय ही रहे हैं। बहुरि अयोगी वि एक आयु प्राण ही रहे है । तहां पूर्व संचित भया था, जो कमनोकर्म का स्कंध, सो समय समय प्रति एक एक निषेक गलतै अवशेष द्वयर्धगुणहानि करि गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण सत्व रह्या, सो द्रव्याथिक नय करि तो अयोगी का अंतसमय विर्षे नष्ट हो है। पर्यायाथिक नय करि ताके अस्तर समय विर्षे नष्ट हो है -- यह तात्पर्य है ।
प्रागै गुणस्थाननि विर्ष संज्ञा कहैं हैंछट्टो ति पढमसण्णा, सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा ।' पुवो पढमरिणयट्टो, सहुमो त्ति कमेण सेसाप्रो ॥७०२॥
षष्ठ इति प्रथमसंज्ञा, सकार्या शेषाश्च कारणापेक्षाः । अपूर्वः प्रथमानिवृत्तिः, सूक्ष्म इति क्रमेस शेषाः ।।७०२॥
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