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[ गोम्मटसार जीवका
सा न्याय आचार्यनि की परंपरा तैं चल्या आया प्रवर्तने का प्रसंग होय । तातें शिष्टाचार का
आचार्य है सो पीछे शास्त्र क करों । है । ताका उल्लंघन कोए उन्मार्ग विषे पालना किये अर्थ करिए है ? जैसा विचार योग्य नाहीं ।
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अब इहां मंगलादिक छहों कहा ? सो कहिए हैं - तहां प्रथम ही पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ, सौख्य- इत्यादि मंगल के पर्याय हैं । मंगल हो के पुण्यादिक भी नाम हैं। सहां मल दो प्रकार है द्रव्यमल, भावमल हां द्रव्यमल दो प्रकार - बहिरंग अन्तरंग । तहां पसेव, मल, धूलि, कादों इत्यादि बहिरंग द्रव्यमल है। बहुरि प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशनि करि आत्मा के प्रदेशनि विषे निबिड बंध्या जो ज्ञानावरणादि आठ प्रकार कर्म, सो अन्तरंग द्रव्यमल है ।
बहुरि भावमल अज्ञान, प्रदर्शनादि परिणामरूप है । अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव भेदरूप मल है । अथवा उपचार मल जीव के पाप कर्म हैं । तिस सब ही म गालयति कहिए विनाशे, वाघा, वा दहै, वाहने, वा शोध, वा विध्वंस, सो मंगल कहिए । अथवा मंगं कहिए सौख्य वा पुण्य, ताको लाति कहिए आदान करें, ग्रहण करें, सो मंगल है ।
बहुरि सो मंगल नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव भेद तें श्रानंद का उपजावनहारा छह प्रकार है । तहां अर्हत्, सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय, साधु, इनका जो नाम, सो तौ नाम मंगल है । बहुरि कृत्रिम प्रकृत्रिम जिनादिक के प्रतिबिंब, सो स्थापना मंगल है | बहुरि जिन, आचार्य, उपाध्याय, साधु इनका जो शरीर, सो द्रव्य मंगल है । बहुरि कैलाश, गिरिनार सम्मेदाचलादिक पर्वतादिक, अर्हन्त प्रादिक के तप - केवलज्ञानादि गुणनि के उपजने का स्थान, वा साठा तीन हाथ से लगाय पांच से पचीस धनुष पर्यन्त केवली का शरीर करि रोक्या हुवा आकाश अथवा केवली का समुद्घात् करि रोक्या हुवा आकाश, सो क्षेत्र मंगल है ।
बहुरि जिस कालं विषै तप आदिक कल्याण भए होंहि, वा जिस काल विष दि जिनादिक के महान उत्सव वर्ते, सो काल मंगल है |
बहुरि मंगल पर्याय करि संयुक्त जीवद्रव्यमात्र भाव मंगल है |
सो यह कह्या हुवा मंगल जिनादिक का स्तवनादिरूप है, सो शास्त्र की आदि fat कीया हूवा शिष्यनि की थोरे कालादिक करि शास्त्रनि का पारगामी करें है ।
EM. BURAN – E