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सम्परामाका भावाटीका ]
टीका - जाते जो स्वयं कहिए आपकौं दोधः कहिए मिथ्यात्व अज्ञान, असंयम, क्रोधादिक, तिनि करि स्तृणाति कहिए, आच्छादित कर है । बहुरि नाही केवल आप ही कौं श्राच्छादित करै है; जाते पर जु है पुरुषवेदी जीव, ताहि कोमल वचन कटाक्ष सहित विलोकन, सानुकूल प्रवर्लन इत्यादि प्रवीणतारूप व्यापारनि ते अपने वंश करि दोष जे हैं हिंसादिक पाप, तिनि करि स्तृणाति कहिए आच्छाद है; असा आच्छादन रूप ही है स्वभाव जाका तात, सो द्रव्य भाव करि स्त्री असा नाम कहां हैं । असी स्त्री शब्द की निरुक्ति करि वर्णन' कीया।
यद्यपि तीर्थंकर की माता मादि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रीनि विषै दोष नाही, तथापि वे स्नी शोरी पर गर्वोक्त दोष ऋरि संयुक्त स्त्री धनी । तातें प्रचुर व्यवहार अपेक्षा असा लक्षण प्राचार्य ने स्त्री का कह्या ।
णेविस्थी व पुमं, गउसो उहय-लिंग-विदिरित्तो। इटावग्गिसमारणग-वेदणगरुनो कलुस-चित्तो ॥२७॥ .
नैव स्त्री नैव पुमान्, नपुंसक उभर्यालगन्यतिरिक्तः ।
इष्टापाकाग्निसनानकदेवनागुरुकः कलुषचित्तः ॥२७५।। टीका - जो जीव पूर्वोक्त पुरुष वा स्त्रीनि के लक्षण के अभाव तें पुरुष नाहीं बा स्त्रो नाहीं; तात दौऊ ही वेदनि के डाढी, मूंछ वा स्तन, योनि इत्यादि चिह्न तिनिकरि रहित है । बहुरि इष्ट का पाक जो ईंट पचावने का पंजावा, ताकी अग्नि समान तीव्र काम पीडा करि गरवा भर्या है । बहुरि स्त्री बा पुरुष दोऊनि का अभिलाषरूप मैथुन संज्ञा करि मैला है चित्त जाका, असा जीव नपुंसक है ऐसा आगम विर्षे कह्या है । यह नपुंसक शब्द की निरुक्ति करि वर्णन कीया । स्त्री पुरुष का अभिलाषरूप तीन कामवेदना लक्षण धरै, भावनपुंसक है; असा तात्पर्य जानना ॥२७५।।
तिणकारिसिठ्ठपागग्गि-सरिस-परिणाम-वेयणुम्मुक्का । अवगय-वेदा जीवा, सग-संभवरणंत-बरसोक्खा ॥२७॥
१. पटांडागम - अवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४४ गाथा सं. १७२ पाठभेद - उर - उभय, इट्टाबग्यि - इट्टाबाग, वेदरा -- देवरा । २. षट्खंडागम-धवला पुस्तक १, पृष्ठ ३४४, गांधा १७३। पाठभेद --कारिस तरिगट्ट-वागगि।