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[ गोम्मटसार बौक्काण्ड गाथा अब कहे जे जीवसमासनि से विशेष जीवसमास का कहनहारा अन्य प्राचार्य करि कह्या हुवा गाथा सूत्र कहै हैं -
सुद्द-खरकु-जल-ते-वा, णिच्चचदुग्गदिणियोदयूलिदरा । पदिठिवरपंचपत्तिय, वियललिपुण्णा अपुण्णदुगा । इगिविगले इगिसीदी, असणिणसणिगयजलथलखगाणं । गब्भभवे सम्मुच्छे, दुतिगतिभोगथलखेचरे दो दो । अज्जसमुच्छिमिगब्भे, मलेच्छभोगतियकुपरछपणसीससये ।
सुररिणरये वो दो इदि, जीवसमासा हु छहियचारिसयं ॥
टीका - माटी आदिरूप शुद्ध पृथ्वीकायिक, पाषाणादिरूप खरपृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजःकायिक, वायुकायिक, नित्यनिगोद, इतरनिगोद का दूसरा नाम चतुर्गतिनिगोद असे इनि सातनि के बादर-सूक्ष्म भेद से चोदह भए । बहुरि तृणा, बेलि, छोटे वृक्ष, बड़े वृक्षा, कंपसूरत गए पांच प्रत्येक वनस्पति के भेद हैं । ए जब निगोद शरीर करि आश्रित होइ, तब प्रतिष्ठित कहिए । निगोद रहित होइ, तब अप्रतिष्ठित कहिए । असें इनिके दश भेद भए ।
बहुरि बेइंद्री, त्रीद्रिय, चतुरिंद्रथ जैसे विकलेंद्रिय के तीन, ए सर्व मिलि सत्ताइस भेद एकेंद्रिय-विकलेंद्रियनि के भए । इन एक-एक के पर्याप्त, नि ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेद करि इक्यासी भए ।
बहुरि पंचेंद्रियनि विर्षे - तिर्यच कर्मभूमि विर्षे तौ संज्ञी, असंज्ञी भेद लीयें जलचर, स्थलचर, नभचर भेद करि छह, तिमि छहौं गर्भजनि विर्षे तो पर्याप्त, निर्वत्ति अपर्याप्त भेद करि बारह, अर तिनि छहौं सम्मुर्छन नि विर्षे पर्याप्त, निवृत्ति अपर्याप्त, लब्धि अपर्याप्त भेदनि करि अठारह । बहुरि उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य भोगभूमि के संज्ञी थलचर, नभचर इनि छहौं विषं पर्याप्त, निर्वृत्ति अपर्याप्त भेद करि बारह, सर्व मिलि पंचेंद्री तिर्यंच, के बियालीस भेद भए ।
अहरि मनुष्यनि विर्षे प्रार्यखंड विर्षे उपज्या सम्मूर्छन विष लब्धि अपर्याप्तकरूप एक स्थान है । बहुरि आर्यखण्ड विर्षे उपजे गर्भज अर म्लेच्छखंड विर्षे उपजे गर्भज ही हैं । पर उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य भोगभूमि उपजे गर्भज ही हैं । अर कुभोगभुमि विर्षे उपजे गर्भज ही हैं। असें छह प्रकार तो मनुष्य, बहुरि से ही दश प्रकार
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