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सम्यग्ज्ञानafter भाषादीका ]
भवनवासी, आठ प्रकार व्यंतर, पांच प्रकार ज्योतिषी, पटलनि की अपेक्षा करि तरेसठि प्रकार वैमानिक, सर्व मिलि छियासी प्रकार देव ।
निर्वृति
बहुरि प्रस्तारनि की अपेक्षा करि गुणचास प्रकार नारकी ए सर्व मिलि सर्व एक सौ इकतालीस भए । ति एक एक के कीए दोय मैं बियासी होइ । जैसे एकेंन्द्री, विकलेंद्रिय के इक्यासी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच के बियालीस, सम्मूर्छन मनुष्य का एक, गर्भज मनुष्य, देव, नारकिनि के दोय से बियासी मिलि करि छह अधिक च्यारि से जीवसमास प्रकटरूप हो हैं ।
इति जीवसमासनि का स्थान अधिकार समाप्त भया ।
योनि प्ररूपणा विषै प्रथम आकार योनि के भेदनि को कहे हैं - संखावत्तयजोरी, कुम्मुष्णायवसपत्तजोगी य। तत्थ य संखावत्ते, रिगयभाबु विवज्जदे गन्भो ॥८१॥
शंखाकयोनिः कूर्मोन वंशपत्रयोनि च ।
तत्र तु शंखावतें, नियमात्तु विवर्ज्यते गर्भः ॥ ८१ ॥
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टीका - शंखावर्तयोनि कूर्मोनतयोनि, वंशपत्र योनि से स्त्री शरीर विषै संभवती प्राकाररूप योनि तीन प्रकार हैं । योनि कहिए मिश्ररूप होइ श्रदारिकादिक नोकवर्गणारूप पुद्गलनि करि सहित बंधे जीव जाविषै सो योनि कहिए । जीव का उपजने का स्थान सो योनि है । तहां तीन प्रकार योननि विषै शंखावर्तयोनि विषै तो गर्भ नियम करि विवजित है, गर्भ रहै ही नाहीं । अथवा कदाचित रहै तौ नष्ट होइ है ।
कुम्मण्णजोगीए, तित्थयरा दुविहचक्कवट्टी य । रामा वि य जायंते, सेसाये सेसगंजरो दु ॥ ८२ ॥
कूर्मोन्नतयोनौ तीर्थंकराः द्विविधचक्रवर्तिनश्च ।
रामा अपि च जायंते, शेषायां शेवकजनस्तु ॥१८२॥
चक्रवर्ती,
टीका - कूर्मोन्नतयोनि विषे तीर्थंकर वा सकलचक्रवर्ती वा नारायण, प्रतिनारायण वा बलभद्र उपजें हैं । अपि शब्द करि अन्य कोई नाहीं