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[ शोम्मटसार जीवका गाय: ५५६-५६० टीका -- जे भव्य जीव भव्यत्व जो सम्यग्दर्शनादि सामग्री कौ पाइ, अनंत चतुष्टय रूप होना, ताको केवल योग्य ही हैं, तद्रूप होने के नाही, ते :भव्य सिद्ध हैं । सदा काल संसार को प्राप्त रहैं हैं । काहे हैं ? सो कहिये हैं -- जैसे केई सुवर्ण सहित पाषाण असे है, तिनके कदाचित् मैल के नाश करने की सामग्री न मिले, नसें केई भव्य असे हैं जिनके कर्म मल नाश करने की कदाचित् सामग्री नियम करि न संभव है।
भावार्थ - जैसे अहमिंद्र देवनि के नरकादि विर्षे गमन करने की शक्ति है, परंतु कदाचित् ग़मन न करें, सैसें केई भव्य असें हैं, जे मुक्त होने की योग्य हैं, परन्तु कदाचित् मुक्त न होइ। .... .
ण य जे भव्वाभवा मुत्तिसहातीवणंतसंसारा। ते जीवा णायव्वा, रणेव य भन्वा प्रभवा य ॥५५६॥
न च ये भव्या अभव्या, मुक्तिसुखा प्रतीतानंतसंसाराः। ।. . ते जीवा ज्ञातव्या, नैव च भव्या अभव्याश्च ॥५५९॥
टीका -- जे जीव केई नवीन ज्ञानादिक अवस्था को प्राप्त होने के नाही; तातें भव्य भी नाहीं । अर अनंत चतुष्टय रूप भए, तातै प्रभव्य भी नाही, असे मुक्ति सुख के भोक्ता अनंत संसार रहित भए; ते जीव भव्य भी नाहीं पर अभव्य भी. नाहीं; जीवत्व पारिणामिक को धर है; असे जानने। ... .. इहां जीवनि की संख्या कहैं हैं
अवरो जुताएंतो, अभव्यरासिस्स होदि परिमारणं । तेण विहीणो सम्वो, संसारी भवरासिस्स ॥५६०॥
अवरो युक्तानन्तः, अभयराशे भवति परिमारणम् ।
तेन विहीनः सर्वः, संसारी भव्यराशेः ॥५६०।। : टोका - जघन्य युक्तानंत प्रमाण अभध्य राशि का प्रमाण है । बहुरि संसारी जीवनि के परिमाण में अभव्य राशि का परिमाण घटाएं, अवशेष रहे, तितना भव्य राशि का प्रमाणं है । इहाँ संसारी जीवनि के परिवर्तन कहिए हैं - परिवर्तन पर परिभ्रमण, संसार ए एकार्थ हैं। सो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावं, भेद ते परिवर्तन
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