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सम्पानामचन्तिका भाषाटीका } प्रकटपर्ने । बहुरि दूसरा सासारनगुणस्थान विर्ष पारिणामिक भाव है। जातें इहां दर्शनमोह का उदय आदि की अपेक्षा का जु अभाव, ताका सद्भाव है।
बहुरि मिश्रगुणस्थान विर्षे क्षायोपमिक भाव है। काहै तें ?
मिथ्यात्वप्रकृति का सर्वधातिया स्पर्धकनि का उदय का अभाव, सोई है लक्षण जाका, ऐसा तो क्षय होते संते, बहुरि सम्यग्मिथ्यात्व नाम प्रकृति का उदय विद्यमान होते संते, बहुरि उदय कौं न प्राप्त भए ऐसे निषेकनि का उपशम होते संते, मिश्रगुणस्थान हो है । तातै ऐसा कारण ते मिश्र विर्षे क्षायोपशमिकभाव है।
बहुरि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान विर्षे औपशमिक सम्यक्त्व, बहुरि क्षायोपशमिकरूप वेदकसम्यक्त्व, बहुरि क्षायिक सम्यक्त्व ऐसे नाम धारक सीन भाव हैं, जाते इहां दर्शनमोह का उपशम वा क्षयोपशम वा क्षय संभव है ।
आगे कहे हैं जु ए भाव, तिनके संभवने के नियम का कारण कहै हैं - एवे भावा रिणयमा, बंसरगमोहं पडुच्च भरिणदा हु । चारित्तं पत्थि जदो, अविरदअंतेसु ठाणेसु ॥१२॥ एते भावा नियमाद्, दर्शनमोहं प्रतीत्य भाणिताः खलु ।
चारित्रं नास्ति यतो, विरसांतेषु स्थानेषु ॥१२॥ टीका -- असे पूर्वोक्त औदायिक प्रादि भाव कहे, ते नियम ते दर्शनमोह कौं प्रतीत्य कहिए आश्रयकरि, भरिपता कहिए कहे हैं प्रगटपनै ; जाते अविरतपर्यंत च्यारि गुणस्थान विषं चारित्र नाहीं है। इस कारण ते ते भाव चारित्र मोह का आश्रय करि नाहीं कहे हैं।
तीहिं करि सासादनगुणस्थान विर्षे अनंतानुबंधी की कोई क्रोधादिक एक कषाय का उदय विद्यमान होतें भी ताकी विवक्षा न करने करि पारिणामिकभाव सिद्धांत विर्षे प्रतिपादन कीया है, ऐसा तू जानि ।।
बहुरि अनंतानुबंधी की किसी कषाय का उदय की विवक्षा करि प्रौदयिक भाव भी है।
प्रागै देशसंयतादि गुणस्थाननि विर्षे भावनि का नियम गाथा दोय करि दिखावें हैं -
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