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समाप
[ मोम्मटमार जीवका या ६६.६७ शीलेश्यं संप्राप्तो निरुद्ध निश्शेषाखयो जीवः ।।
कर्मरजोयिप्रभुक्तो मतयोगः केवलो भवति ॥६५॥ टीका - अठारह हजार शील का स्वामित्वपना कौं प्राप्त भया । बहुरि निरोधे हैं समस्त प्रास्रव जान; तातें नवीन बध्यमान कर्मरूपी रज करि सर्वथा रहित भया । बहुरि मन, वचन, काय योग करि रहितपना ते प्रयोग भया । सो माहीं विद्यमान है योग जाके, असा प्रयोग अर अयोग सोई केवली, सो प्रयोग केवली भगवान परमेष्टी जीव असा है !
या प्रकार कहे चौदह गुणस्थान, तिनिविर्षे अपने आयु बिना सात कर्मनि की गुणधेरणी निर्जरा समय है। ताका घर तिस गुरणश्रेणी निर्जरा का काल विशेष की गाथा दोय करि कहैं हैं -
सम्मत्तुप्पत्तीये, सावयविरदे असंतकम्मसे । दसरणमोहक्खवगे, कसायउवसामगे य उवसते ॥६६॥ खवगे य खीणमोहे, जिरणेसु दव्या असंखगुरिणदकमा। तन्दिवरीया काला, संखेज्जगुरणक्कमा होति ॥६७॥ सम्यक्त्वोत्पत्ती, श्रावकविरते अनंतकर्माशे । दर्शनमोहक्षपके, कषायोपशामके चोपशांते ॥६६॥ क्षपके घ क्षीणमोहे, जिनेषु द्रव्याण्यसंख्यगुरिणतकमागि ।
तद्विपरीताः कालाः संख्यातगुरगतमा भवति ॥६७॥
टोका - प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति जो प्रथमोपशम सम्यक्त्व कौं कारण तीन करणनि के परिणामनि का अंत समय, तीहिविर्षे प्रवर्तमान असा जो विशुद्धता का विशेष धरै मिथ्यादष्टि जीव, ताकै प्राय बिना अवशेष ज्ञानावरणादि कर्मनि का जो गुणश्रेणी निर्जरा का द्रव्य है; तातें देशसंयत के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यातगुणा है । बहुरि तातै सकलसंयमी के गुनगश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । ताते अनंतानुबंधी कषाय का विसंयोजन करनहारा जीव के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । तातें दर्शन मोह का क्षय करने वाले के गुणश्रेणी निर्जरा द्रव्य असंख्यात गुणा है । बहुरि-तात कषाय उपशम करने वाले अपूर्वकरणादि