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तेरहवां अधिकार : संयममार्गणा विमल करत निज मुरणनि तें, सब कौं विमल जिनेश ।
विमल हौंन को मैं नमौं, अतिशय जुत तीर्थेश । अथ ज्ञानमार्गणा का प्ररूपण करि, अब संयममार्गणा कहै हैं -~-- वन-समिति-कसायाणं, दंडाणं तहिथियारण पंचण्हं । धारण-पालण- रिणग्गह-चाग-जयो संजमो भणियो ॥४६॥
व्रतसमितिकषायारणां, दंडानां सथेंद्रियाणां पंचानाम् ।
धारणपालननिग्रहत्यागजयः संयमो भरिणतः ॥४६५।। टीका - अहिंसा आदि व्रतनि का धारना, ईर्या आदि समितिनि का पालना, क्रोध आदि कषायनि का निग्रह करना, मन, वचन, कायरूप दंड का त्याग करना, स्पर्शन आदि पांच इंद्रियानि का जीतना असे व्रतादिक पंचनि का जो धारणादिक, सोई पंच प्रकार संयम जाना । सं - कहिए सम्यक् प्रकार, जो यम कहिए नियम, सो संयम है।
बादरसंजलणुदये, सहमुदये समखये य मोहस्स। संजमभावो णियमा, होदि ति जिणेहि णिहिटंट ॥४६६॥
बावरसंज्वलनोदये, सूक्ष्मोदये शमशययोश्च मोहस्य ।
संयमभावो नियमात् भवतीति जिननिर्दिष्टम् ॥४६६।। टीका - बादर संज्वलन का उदय होत संत, बहुरि सूक्ष्म लोभ का उदय होत सतें, बहुरि मोहनीय का उपशम होत संत वा मोहनीय का क्षय होत सतें निश्चय करि संयम भाव हो है । असें जिनदेवने कहा है।
तहां प्रमत्त - अप्रमत्त गुरणस्थाननि विर्षे संज्वलन कषायनि के जे सर्वधाती स्पर्धक हैं; तिनिका उदय नाहीं; सो तो क्षय है । बहुरि उदय निषेकनि तें ऊपरवर्ती
१. पखंडागम -- थक्ला पुस्तक १, पृष्ठ १४६, माथा सं, ६२।
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