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ऐसारलार भोवकास गाथा २०२
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ध्वजा समान लबा, चौकौर साकार धर है । असे इनिके आकार कहे । तथापि इनिकी अवगाहना धनागुल के असंख्यात भागमात्र है; तातें जुदे-जुदे दीसें नाहीं । जो पृथ्वी आदि इंद्रियगोचर है, सो घने शरीरनि का समुदाय है, असा जानना । बहुरि तरु, जे बनस्पतीकायिक पर द्वोंद्रियादिक प्रसकायिक, इनि के शरीर अनेक प्रकार आकार धरे हैं, नियम नाहीं । ते धनांगुल का असंख्यातवां भाग तें लगाइ, संख्यात घनांगुल पर्यंत अवगाहना धरे हैं। जैसे जानना ।
आगे काय मार्गणा के कथन के अनंतर काय सहित संसारी जीवनि का दृष्टांतपूर्वक व्यवहार कहैं हैं---
जह भारवहो पुरिसो, वहइ भरं गेहिऊण कावलियं । एमव वहइ जीवो, कम्मभरं कायकावलियं ॥ २०२।।
यथा भारवहः पुरुषो, वहति भारं गृहीत्वा कावटिकम् ।
एवमेव वहति जीवः, कर्मभारं कायकाटिकम् ।। २०२॥ टोका - लोक विषं जैसें बोझ का वहनहारा कोऊ पुरुष, कावडिया सो कावड़ि में भर्या जो बोझ भार, ताहि लेकरि विवक्षित स्थानक पहुंचावै है ।
से ही यहु संसारी जीव, औदारिक आदि नोकर्मशरीर विषै भऱ्या हूवा ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म का भार, ताहि लेकरि नानाप्रकार योनिस्थानकनि कौं प्राप्त कर है । बहुरि जैसे सोई पुरुष कावड़ि का भार की गेरि, कोई एक इष्ट स्थानक विष विश्राम करि तिस भार करि निपज्या दुःख के वियोग करि सुखी होइ तिष्ठ है। तैसें कोई भव्य, जीव, कालादि लब्धिनि करि अंगीकार कीनों जो सम्यग्दर्शनादि सामिग्री, तीहि करि युक्त होता संता, संसारी कावडि का विर्षे भर्चा कर्म भार कौं छांडि, लिस भार करि निपज्या नाना प्रकार दुःख-पीड़ा का वियोग करि, इस लोक का अग्रभाग विर्षे सुखी होई तिष्ठ है । असा हित उपदेश रूप आचार्य का अभिप्राय है ।
.. आगे दृष्टांसपूर्वक कायमार्गरणा रहित जे सिद्ध, तिनिका उपाय सहित . स्वरूप की कहैं हैं -
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:-पटखण्णागम-धवला पुस्तक
पृष्ठ 'सं. १४०, गाथा ५७ ।