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દર
मनः सहितानां वचनं दृष्टं तत्पूर्वमिति योगे ।
उक्त
| गोम्मटसार जीवकाण्डंग (२८-२१५
मन उपचारेणेंद्रियज्ञानेन होने ॥२२८॥
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टीका - इन्द्रिय ज्ञान जो मतिज्ञान, तींहि करि रहित सा जु सयोग केवली, तीहि विषै मुख्यपने तो मनो योग है नाहीं, उपचारतें है । सो उपचार विषै निमित्त का प्रयोजन है; सो निमित्त इहां यह जानना जैसे हम प्रादि छद्यस्थ जीव मन करि संयुक्त, तिनिके मनोयोग पूर्वक अक्षर, पद, वाक्य, स्वरूप वचनव्यापार देखिए है । तातें केवली के भी मनोयोग पूर्वक वचन योग कार ।
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इहां प्रश्न कि छद्यस्थ हम आदि अतिशय रहित पुरुषनि विषै जो स्वभाव देखिए, सो सातिशय भगवान केवली विषै कैसे कल्पिए ?
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ताका समाधान सादृश्यना नाहीं है; इस ही वास्ते छत्रस्थ के मनोयोग मुख्य कया । श्रर केवली के कल्पनामात्र उपचाररूपं मनोयोग कहा है ।
सो इस कहने का भी प्रयोजन कहें हैं
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गोवंyaurat, araमण जिवचंद मणवम्गरपबंधाणं, आगमणादो दु सणजोगो ॥२२६॥
गोपांगोदयात् द्रव्यमनोऽर्थं जितेंद्रचंद्रे | मनोवगणास्कंधानामागमनात् तु मनोयोगः ।। २२९ ॥
टीका - जिन है इंद्र कहिए स्वामी जिनिका सें जो सम्यग्दृष्टी, तिनिके चंद्रमा समान संसार श्राताप पर अज्ञान अंधकार का नाश करनहारा, जैसा जो सयोगी जिन, तीहि विषै अंगोपांग नामा नामकर्म के उदय तें द्रव्यमन फूल्या आठ पांखडी का कमल के आकार हृदय स्थानक के मध्य पाईए हैं। ताके परिणमनेकौं कारणभूत मन वर्गा का श्रागमन तें द्रव्य मन का परिणमन है । ताते प्राप्तिरूप - प्रयोजन तें पूर्वोक्त निमित्त तैं मुख्यपने भावमनोयोग का प्रभाव है । तथापि मनयोग उपचार मात्र कथा है । अथवा पूर्व गाथा विषे कला था; आत्मप्रदेशनि के कर्म नोकर्म का ग्रहणरूप शक्ति, सो भावमनोयोग, बहुरि याहीं तें उत्पन्न भया मनोवगणारूप पुद्गलनि का मनरूप परिणमना, सो द्रव्यमनोयोग, सो इस गाथा सूत्र करि संभव है । ता केवली के मनोयोग का है । तु शब्द करि केवली के
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