________________
सम्याज्ञामविका भावाटीका ]
-
[ २२७
auipatorischriANAudhe -"
.............
d
.
ही आदि स्थान की अपेक्षा लीए वृद्धि-हानि का स्वरूप कह्या । बहुरि. कहीं एक स्थान का प्रमाण की अपेक्षा दूसरा स्थान विर्षे वृद्धि वा हानि कही, दूसरा स्थान का प्रमाण की अपेक्षा तीसरा स्थान विर्षे वृद्धि वा हानि कही; असे स्थान-स्थान प्रति वृद्धि वा. हानि का अनुक्रम हो है। तहां अनंत भागादिरूप बृद्धि वा हानि होइ, सो यथासंभव जाननी । बहुरि पर्यायसमास नामा श्रुतज्ञान के भेद वा कषाय स्थान इत्यादिकनि विर्षे संभवती षट्स्थान पतित वृद्धि का हानि के अनुक्रम का विधान प्रागै ज्ञानमार्गरणा अधिकार विषं लिखेंगे, सो जानना । प्रेस वृद्धि-हानि का विधान अनुक्रम अनेक प्रकार हैं, सो यथासंभव है। असे प्रसंग पाइ षट्गुणी प्रादि हानिवृद्धि का वर्णन कीया ।
प्रागै जिस-जिस जीवसमास के अवगाहन कहे, तिस-तिसके सर्व अवगाहन के भेदनि के प्रमाण कौं ल्यावै हैं -
हेट्ठा जेसि जहण्णं, उरि उक्कस्सयं हषे जत्थ । . तत्यंतरगा सश्वे, तेसिं उग्गाहणविअप्पा ॥११२॥ अधस्तनं येषां, जघन्यमुपयुत्कृष्टकं भवेद्यत्र ।
तनांतरगाः सर्वे, तेषामवगाहनविकल्पाः ॥११२॥ टीका - इहां मत्स्यरचना कौं मन विर्षे विचारि यहु कहिये है - जो जिन अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण थोरा होइ, ते अधस्तन स्थान हैं । बहुरि जिन अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण बहुत होइ, ते उपरितन स्थान हैं, ऐसा कहिये है । सो जिन जीवनि का जघन्य अवगाहना स्थान तो नीचें तिष्ठ पर जहां उत्कृष्ट अवगाहना स्थान ऊपरि तिष्ठ, तिनि दोऊनि का अंतराल विर्षे वर्तमान सर्व ही अवगाहना के स्थान तिन जीवनि के मध्य अवगाहना स्थान के भेदरूप हैं - ऐसा सिद्धांत विष प्रतिपादन कीया है।
भावार्थ - पूर्वे अवगाहन के स्थान कहे, तिनि विर्षे जिसका जघन्यं स्थान जहां कह्या होइ, तहांत लगाइ एक-एक प्रदेश की वृद्धि का अनुक्रम लीए जहां तिस ही का उत्कृष्ट स्थान कह्या होइ, तहां पर्यंत जेते भेद होइ, ते सर्वे ही भेद तिस जीव की अवगाहना के जानने । तहां सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो जघन्य स्थान, सो तो आदि जानना । बहुरि इस ही का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो