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सम्यक्षामदगिका भाषाटोका
ससा जंतू य मारणी य मायी जोगी य संकुडो ।
असंकुडो य खेसाहू, अंतरपा तहेव य॥ इत्यादि प्रात्मस्वरूप का कथन है; इनका अर्थ लिखिए है।
जोति कहिये जीवे , व्यवहार करि दर्श प्राणनि कौं, निश्चय करि ज्ञान दर्शन सम्यक्त्वरूप चतन्य प्राणनि कौं धार है। पर पूर्व जीया, आग जीवेगा; ताते आत्मा को जीव काहिए।
बहुरि व्यवहार करि शुभाशुभ कर्म कौं पर निश्चयं करि चैतन्य प्राणनि की करै है, तात कर्ता कहिए।
बहुरि व्यवहार करि सत्य असत्य वचन बोल है; ताते वक्ता है । निश्चय करि वक्ता नाहीं है।
बहुरि दोऊ नयनि करि जे प्राण कहे, ते याकै पाइए हैं । ताते प्राणी कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि शुभ अशुभ कर्म के फल कौं पर निश्चय करि निज स्वरूप को भोगव है; तातें भोक्ता कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि कर्म-नोकर्मरूप पुद्गलनि कौं पूरै है अर गाले है; ताते पुद्गल कहिए । निश्चय करि आत्मा पुद्गल है माहीं।
बहरि दोऊ नयनि करि लोकालोक संबंधी त्रिकालवर्ती सर्व ज्ञेयनि कौं 'वेत्ति' कहिए जाने है, ताते वेदक कहिए ।
बहुरि व्यवहार करि अपने देह कौं वा केवल समुद्धात करि सर्व लोक कौं अर निश्चय करि ज्ञान ते सर्व लोकालोक कौं वेवेष्टि कहिए व्याप हैं, तात विष्ण कहिए।
बहुरि यद्यपि व्यवहार करि कर्म के वश” संसार विर्षे परिणब है; तथापि निश्चय करि स्वयं पाप ही आप विर्षे ज्ञान - दर्शन स्वरूप ही करि भवति कहिए परिणव है; तातें स्वयंभू कहिए।
बहुरि व्यवहार करि प्रौदारिक प्रादिक शरीर, याक हैं ; तातै शरीरी कहिये; निश्चय करि शरीरी नाहीं है ।